Book Title: Leshya kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 717
________________ ५५५ लेश्या-कोश अंश रूप में विद्यमान है वहाँ भी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय इन चारों कर्मों का यत्किंचित् क्षयोपशम है और वह ग्राह्य है। जब क्षयोपशम ही बढ़ते-बढ़ते पूर्णता पर पहुँचता है तब क्षायिकका रूप से लेता है। अगर करोड़ रुपये अच्छे हैं तो एक नया पैसा बुरा हो नहीं सकता। इस प्रकार क्षायिक भाव ज्ञ य है तो क्षयोपशमिक भाव भी हेय हो नहीं सकता। इसी विषय को ग्रन्थ लेखक-श्री श्रीचन्द चोरड़िया, न्यायतीर्थ ( द्वय ) ने आगम, टीका, आदि प्रमाणों द्वारा तथा जैनाचार्यों द्वारा कथित प्रसंगों के माध्यम से स्पष्ट किया है। ग्रन्थ पूर्ण परिश्रम तथा अन्वेषण द्वारा लिखा गया है। इस विषय का लेखक को विशद ज्ञान है। जिन सम्प्रदायों द्वारा मिथ्यात्वी की सक्रिया आज्ञा में मान्य नहीं है तथा जो मिथ्यात्वी की अच्छी करणी भी मोक्षमार्ग के विपरीत मानते हैं, उन्हें अच्छा न भी लगे किन्तु वस्तुस्थिति जो है उसे नकारा तो नहीं जा सकता । लेखक अनुमोदन जाने का अधिकारी है। -मुनि श्री राजकरण जैन भारती, मार्च १९८० मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास-जन तत्व दर्शन का एक बहचचित पहलू है। आध्यात्मिक विकास या धर्म किसी व्यक्ति या मत विशेष की सीमा तक ही सीमित रहे, यह कैसे अभीष्ट हो सकता है। आत्म विकास की संभावना में एकाधिकार की कोई संगति नहीं होती फिर भी कोई मत या विचार जब बाद का रूप ग्रहण कर लेता है तो अनेक प्रकार के तर्क उपस्थित हो जाते हैं। मिथ्यात्वी के आध्यात्मिक विकास को नकारने का अर्थ होता—किसी की सम्यक्त्व प्राप्ति का निषध । तथ्य यह है कि आत्म-प्रदेशों की उज्ज्वलता के बिना सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता और आध्यात्मिक विकास के बिना आत्मप्रदेशों की उज्ज्वलता नहीं होती। आगमों में अश्रुत्वा केवली का प्रसंग आता है। कोई मिथ्यात्वी धर्म को सुने बिना ही निरवद्य क्रिया करते हुए सम्यक्त्व और चारित्र को प्राप्त कर केवली बन जाता है, उसे असोच्चा केवली कहते हैं । यदि मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास नहीं होगा तो असोच्चा केवली का प्रसंग ही मिथ्या हो जाएगा। विपाक सूत्र तथा ज्ञाता में भी अनेक ऐसे प्रसंग हैं जहां मिथ्यात्व अवस्था में सुपात्रदान आदि के द्वारा परित संसार करके मनुष्य का आयु बाँधा गया है। तामली तापस का प्रसंग तो इस तथ्य को और अधिक पुष्ट कर देता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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