Book Title: Leshya kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 728
________________ ५६६ लेश्या - कोश ग्रन्थ का विषय सैद्धान्तिक चर्चा का है । लेखक ने इसे तैयार करने में बहुत अध्ययन और श्रम किया है । इससे गम्भीर व अधिक चिन्तन की प्रेरणा मिलती है । लेखक जैन आगमों के विषय वर्गीकरण का काम वर्षों से स्व० मोहनलालजी बांठिया के साथ बड़ी लगन से कर रहे हैं । वह कार्य तो अपने ढंग का अकेला ही है । लेखक के उज्ज्वल भविष्य का शुभ कामना करता हूँ | वे निरन्तर स्वाध्याय और शोधरत रहे एवं जनागमों और सिद्धान्तों सम्बन्धी अच्छी रचना को तैयार करके जैन शासन की व साहित्य की सेवा करते रहे । यही मंगल कामना है । प्रस्तुत कृति महान अध्यवसायी, जैनविद्या मनीषी श्री श्रीचन्द चोरड़िया, न्यायतीर्थ की लेखनी से प्रसूत है, और जैन दर्शन की अध्यात्म-सरणि के सामान्यतः अचर्चित विषय पर प्रकाश किरणें बिखेरती हुई चिन्तन के नये आयामों को उद्घाटित करती है । -अगरचन्द नाहटा बीकानेर १७ जनवरी १६७८ यह सत्य है कि मिथ्यात्वी संसार में भटकता है । किन्तु यह भी निर्विवाद सत्य है कि मिथ्यात्व का नाश हो सकता है, और फलस्वरूप मुक्ति प्राप्त हो सकती है । यदि मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास सर्वतोभावेन अवरुद्ध माना जाए, तो आध्यात्मिक सोपान 'गुणस्थान' के अन्तर्गत प्रथम के तीन गुणस्थानों का परिगणन निरर्थक व असंगत हो जाए । हाँ, यह बात और है कि मुक्ति का वास्तविक प्रथम सोपान 'सम्यक्त्व' है । पर, क्या सभी मिथ्यात्वी इस 'सम्यक्त्व' सोपान पर चढ़ने में सक्षम हो सकते हैं ? यदि हो सकते हैं तो कौन और किस तरह ? इसी मुख्य प्रश्न के साथ और भी अनुयोगी प्रश्न हैं, जैसे- मिथ्यात्वी पुरुषार्थ का सद्भाव सम्भव है कि नहीं ? वह सदनुष्ठान कर सकता है कि नहीं ? क्या मिथ्यात्वी निरवद्य क्रिया से कर्मनिर्जरा कर सकता है, या नहीं ? इत्यादि । में प्रसन्नता का विषय है कि विद्वान लेखक ने उस सभी प्रश्नों पर, शास्त्र - सम्मत प्रमाणों को उद्धृत करते हुए, अपना मन्तव्य पुष्ट किया है । जब तक जीव संकल्पी पापों से सर्वथा विरत नहीं होता है, तब तक वह व्यवहार रूप से भी मिथ्यादृष्टि है, और निश्चयदृष्टि से भी । यदि वह संकल्पी पापों से सर्वथा विरत होकर अंशरूप से धर्म - पुरुषार्थी हो जाता है, तो वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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