Book Title: Leshya kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 729
________________ लेश्या- कोश व्यवहार रूप से सम्यग्दृष्टि हो जाता है । पुण्य - पुरुषार्थ का सद्भाव है । ५६७ इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव में भी अभव्य जीव भी व्यवहार सम्यगुचारित्र धारण कर सकता है । वह भी मुक्ति के अनुकूल पुरुषार्थ करता है, पर उसका पुरुषार्थ सांसारिक भोगाकांक्षा से ही होता है । व्यवहार दृष्टि से वह धर्म में श्रद्धान, रुचि व प्रवृत्ति करता है, पर उसका पुरुषार्थ कर्मक्षयकारक नहीं होता - इसी का संकेत समयसार की कुछ गाथाओं (२७३, २७५, १५३ ) में किया गया है । उसके अन्तःकरण में आत्मसम्यग्दर्शन तथा की भावना कभी जागृत नहीं होती, अतः उसका व्यवहार स्वातन्त्र्य-प्राप्ति व्यवहार - सम्यक्चारित्र दोनों निरर्थक हैं-वे आत्म-स्वातन्त्र्य की प्राप्ति में कारण न होकर शुभ गति में ही कारण होते हैं ! इसके विपरीत, भव्य जीव में आत्म-स्वातन्त्र्य की प्राप्ति की । इससे सम्यग् भावना जागृत होती है, तब व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यक्त्व का, तथा व्यवहार सम्यक्चारित्र 'निश्चय सम्यक्चारित्र' का जनक होने के कारण, सार्थक कहलाते हैं । पर भव्यों में भी मिथ्यादृष्टि हैं, वे चाहें तो पुण्य कार्य भी करते हैं, सम्मान्वतः इनकी प्रवृत्ति अधिकतर संकल्पी पापरूप हुआ करती है, और उनकी आरम्भी पापरूपी प्रवृत्ति में संकल्पी पाप की पुट रहा करती है । परन्तु वे संकल्पी पाप करते हुए भी पुण्यफल की चाह मन में रखते हैं । इन्हीं मिथ्यादृष्टियों में कोई न कोई ऐसे विशिष्ठ पुरुष होते हैं जो संकल्पी पाप नहीं करते, उनके आरम्भी पापों में संकल्पी पापों की पुष्ट भी नहीं रहती और वे सांसारिक भोगाकांक्षा न रख कर पुण्य कार्य करते हैं । ऐसे ही मिथ्यादृष्टि जीवों में सम्यग्दर्शन के प्रकट होने की सम्भावना रहती है । इस प्रकार मिथ्यादृष्टियों में जो हिताहितविवेकयुक्त ( संज्ञी पर्याप्तक पंचेन्द्रिय ) होते हैं, उनमें सम्यक्त्व - सोपान पर चढने की क्षमता रहती है । वे मोक्ष मार्ग के देश आराधक हो सकते हैं, उनके शुभ परिणाम, शुभ लेश्या, सदनुष्ठान से कई पुण्य प्रकृतियों का ( तीर्थङ्कर नाम कर्मादि छोड़कर ) बन्ध तथा आंशिक रूप से मोहनी आदि कर्मों का क्षयोपशम - ये होते रहते हैं । सत्संगति से उनमें कषायादि की तीव्रता की कमी भी होती है । आत्मोज्ज्वलता हेतु सदनुष्ठान करने वाले उक्त मिथ्यात्वी जीवों में अकाम निर्जरा के साथ-साथ 'सकाम निर्जरा' को क्षमता भी होती है । बिना निर्जरा के वे सम्यक्त्वी नहीं बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740