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लेश्या - कोश
सकते । हाँ, उनमें संवर व्रत भले ही न हो, पर उनका शुद्ध पराक्रम निर्जरा का अवश्य हेतु है । जहां वे पाप कर्म का आस्रव करते हैं, वहां सत्क्रियाओं से गाढ़ पुण्य का भी बंध करते हैं, जिसके फलस्वरूप नवम नौवेयक तक वे स्वर्ग सुख के अधिकारी होते हैं । बिना निर्जरा के पुण्य-बन्ध सम्भव नहीं । देव-गति की तरह, सदनुष्ठान से वे मनुष्य गति का आयुष्य भी बांधते हैं । देश - न्यून दश पूर्व ( आगम) के अध्ययन की क्षमता वाला क्षयोपशम ( अज्ञान ) भी उनके होते हैं । ( चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम तो प्राणी मात्र में होता है । ) इस प्रकार, शुभ परिणाम, शुभ योग, शुभ लेश्या, शुभ अध्यवसाय, वैराग्य — इन सब का सद्भाव मिथ्यात्वी में सम्भव है, और वह अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है । वह भी दान- शील-तप- भावना - इन चार मार्गों की आराधना कर सकता है । हाँ, श्रुत की आंशिक आराधना करने का उसका भी अधिकार है । अजुव्रतों के माध्यम से सम्यक्त्वी हो सकता है । वह स्थूल रूप क्रोध, मान, माया, लोभ- इन पर विजय प्राप्त करता हुआ, अन्त में उत्तरोत्तर साहित्यक उत्कर्ष भी करता है ।
लेखक ने अपने इस ग्रन्थ में उपर्युक्त शोध-सार समाविष्ट कर शोधार्थी विद्वज्जनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया है । यत्र-तत्र पेचीदे प्रश्नों को उठा कर उनका सोदाहरण व शास्त्र सम्मत समाधान भी किया गया है, जो सराहनीय हैं | संवर के बिना भी सकाम निर्जरा होती है— इसकी पुष्टि भगवान महावीर के जीवन को उद्धृत कर दी गई है । अभिनिष्क्रमण से पूर्व गृहस्थावास में भगवान महावीर ने सावद्य आरम्भ छोड़ा था । वे चतुर्थ गुणस्थान में थे । उनके प्रत्याख्यान रूप संवर भले ही न हो, किन्तु निरवद्य क्रिया से सकाम निर्जरा थी ही ।
मैं लेखक को प्रस्तुत कृति की रचना के लिए साधुवाद देता हूँ ।
- दामोदर शास्त्री प्राध्यापक एवं अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग
श्री ला० ब० शा ० केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ
( शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार ) कटवारिया सराय, नई दिल्ली - १६
आपने मिध्यात्वी का आध्यात्मिक विकास शीर्षक पुस्तक लिखी है— बधाई देता हूँ ।
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- डा० दरवारीलाल कोठिया
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