Book Title: Leshya kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 722
________________ ५६० लेश्या-कोश लेखक ने काफी विस्तार के साथ उक्त चर्चा को पुनः चिन्तन का आयाम दिया है । मिथ्यात्वी के आध्यात्मिक विकास के सम्बन्ध में तो मेरे विचार से किसी को आपत्ति नहीं है । यदि यह विकास न हो तो वह सम्यग् दर्शन की भूमिका पर भी कैसे आ सकता है । प्रश्न मिथ्वात्वी के क्रिया काण्ड का है । वह संवर एवं अविपाक निर्जरा की कोटि में आता है या नहीं, यह विवादग्रस्त है । भावशुद्धि होने में विवाद नहीं है । फिर भी पुस्तक एक अच्छी चिन्तनसामग्री उपस्थित करती है । अतः पठनीय है । अच्छा होता, लेखक महोदय साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर यदि मुक्त चिन्तन करते । एक नया ही रूप लेता । तब यह लेखन - सम्पादक, पं० चन्द्रभूषण मणि त्रिपाठी अमर भारती जनवरी १६७८ ऐसा व्यक्ति सद्ज्ञान का ε 'लेश्या कोश' व 'क्रिया कोश' के बाद लेखक की यह कृति पाठकों का ध्यान एक नई दिशा की ओर खींचती है । जैन दर्शन में मिथ्यात्व शब्द बहुप्रचलित है | साधारण बोल चाल में इसे अज्ञान, मिथ्यादृष्टि - विपरीत ज्ञान भी कहा जा सकता है । विपरीत ज्ञान या मिथ्यात्व का विकास कभी आध्यात्मिकता का स्पर्श नहीं कर सकता, पर जिसमें ऐसा ज्ञान है संबल पाकर अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है । लेखक ने पुस्तक के अध्यायों में क्रमशः मिथ्यात्वी का स्वरूप, मिथ्यात्वी का सद्-असद् अनुष्ठान विशेष, मिथ्यात्वो और करण, मिथ्यात्वों के क्षयोपशम - निर्जरा विशेष, मिध्यात्वी का ज्ञान- दर्शन विशेष, मिध्यात्वी का व्रत विशेष, मिथ्यात्वी और आराधना-विराधना तथा उपसंहार पर विस्तार से प्रकाश डाला है । लेखक के निष्कर्षो और मान्यताओं से सब सहमत हों, यह आवश्यक नहीं । कई मुद्दे विचारणीय हो सकते हैं, जैसे – आत्मविकास का ओमनम: मिथ्यात्व अवस्था ही होता है, मिथ्यात्व को निर्जरा होती है, पर संवर नहीं । आशा है, शास्त्रमर्मज्ञ विद्वानों को इस विषय पर गहराई से चिन्तन करने की ओर प्रवृत्त करने में यह पुस्तक सहायक बनेगी । मिथ्यात्व की भांति सम्यक्त्व भी जैन दर्शन का बहु प्रचलित शब्द है । इस पर भी विस्तार से लिखा जाना चाहिये । Jain Education International यह अपने विषय की अपूर्व कृति है । मनीषी लेखक ने लगभग दो सौ ग्रन्थों का गंभीर पारायण एवं आलोडन करके शास्त्रीय रूप में अपने विषय को प्रस्तुत किया है । - जिनवाणी, जयपुर जुन १६७८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740