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लेश्या - कोश
आत्म उज्ज्वलता की तारतम्य के आधार पर गुणस्थानों का निरूपण किया गया है । गुणस्थान का अर्थ है - आत्मा की शुद्धि । मिथ्यात्वी का पहले गुणस्थान में रखा गया है । समवायांग में कहा गया है— कम्मविसोहिमग्गणंपडुच्च चउदस जीवद्वाणा पण्णत्ता — कर्म विशुद्धि के तारतम्य की अपेक्षा से चौदह जीवस्थान ( गुणस्थान ) होते हैं । मिथ्यात्वी भी जब प्रथम गुण स्थान का अधिकारी है तब उसका आध्यात्मिक विकास तो स्वतः सिद्ध है । उसे नकारने या अस्वीकारने का कोई कारण नहीं रह जाता । इसी प्रकार नन्दी सूत्र में भी कहा गया है— सबजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अनंतमोभागो निच्चुघाडिओ, जइ पुन सोडवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा — ऐसा एक भी जीव नहीं है जिसमें सूक्ष्मतम आंशिक उज्ज्वलता नहीं होती । सूक्ष्मतम आंशिक उज्ज्वलता के अभाव में जीव अपने मूल स्वभाव को छोड़कर अजीव बन जाता । जीव कभी अजीव नहीं होता इसका एकमात्र कारण है उसकी सूक्ष्मतम आंशिक उज्ज्वलता ।
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आगमों में अनेक स्थानों पर ऐसे प्रसंग विकीर्ण हैं जो मिध्यात्वी के आध्यात्मिक विकास की पुष्टि करते हैं । फिर भी एक विचारधारा इसे स्वीकार नहीं करती | लेखक श्री श्रीचन्द चोरड़िया ने आगम तथा आगमेतर ग्रन्थों का मन्थन कर पक्ष-विपक्ष के उन समस्त प्रमाणों को एक साथ उपस्थित कर दिया है ताकि जैन तत्व दर्शन के अध्येताओं के लिए इस सम्बन्ध में निर्णायक अध्ययन की सुविधा हो सके । सामग्री के प्रस्तुतीकरण में लेखक का साम्प्रदायिक अनाग्रह एवं वैचारिक उदारता परिलक्षित होती है ।
लेखक का अध्ययन और अध्यवसाय जितना प्रशस्त है, उतना ही उसका सम्पादन भी प्रशस्त होता तो ग्रन्थ की महत्ता और अधिक बढ़ जाती । सम्पादक सम्बन्धी परिमार्जन पर भविष्य में विशेष ध्यान दिया जाए तो जैन वाङ्गमय के क्षेत्र में लेखक से भविष्य में और अधिक अपेक्षाएं की जा सकती है । कुल मिलाकर लेखक ने एक विमर्शनीय विषय को कोश के रूप में प्रस्तुत किया है । यह ग्रन्थ भी पूर्व प्रकाशित लेश्या कोश, क्रिया कोश आदि की कोटि का है । लेखक का परिश्रम और पुरुषार्थ भविष्य में भी इस प्रकार के अन्य विवेचनीय विषयों पर जिज्ञासु और अनुसन्धित्सुओं के लिए कुछ करे, यही काम्य है |
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- मुनि गुलाबचन्द्र 'निर्मोही'
तित्थयर
नवम्बर १६८०
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