Book Title: Leshya kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 719
________________ लेश्या-कोश ५५७ लेखक श्री श्रीचन्द चोरड़िया ने प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन दर्शन के इस गम्भीर विषय पर गहरा और सप्रमाण प्रकाश डाला है। ग्रन्थ ६ विभागों में विभक्त है। विषय की पुष्टि में उन्होंने आगमों व अन्य शताधिक ग्रन्थों के विपुल उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। जैन दर्शन के गम्भीर अध्येताओं तथा शोध विद्वानों के लिये निश्चित ही ग्रन्थ परम उपयोगी है। __जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ग्रन्थ के विवेचन का आधार मिथ्यात्वी तथा उसके आत्मिक विकास की सम्भावना की खोज है। मिथ्यात्वी यानी मिथ्यादृष्टि, असत्य श्रद्धा। तत्त्व की मान्यता के सम्बन्ध में मतिभिन्नता स्वाभाविक है। जैन श्रद्धा से भिन्न विश्वास लेकर चलने वाला व्यक्ति भी गुणी है, प्रथम गुणस्थान में है। भिन्न श्रद्धा रखने वाले व्यक्ति का भी आत्म विकास सम्भव है, उसके सदाचरण और सद्प्रवृत्ति उसे मोक्ष पथ की ओर अग्नसर ही करती है। अज्ञान में भी मीठाई खाने वाले का मुंह मीठा ही होता है। तन्व में अश्रद्धा रखने वाले व्यक्ति का सद् आचरण आत्मा की उन्नति का ही परिचायक है। विभिन्न जन सम्प्रदायों में इस प्रश्न को लेकर अलग-अलग मान्यताए हैं, लेखक ने मिथ्यात्वी के आध्यात्मिक विकास को स्वीकारा है तथा प्रमाणों से पुष्ट किया है। इस तत्त्व निरूपण को जन-भाषा में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि अपने से भिन्न धर्मावलम्बी के पुण्य कार्य भी अभिनन्दनीय ही है। जैन धर्म के इस विशद और व्यापक दृष्टिकोण का निश्चित ही आज के युग में भरपूर स्वागत होगा। ग्रन्थ की मूल्यवत्ता असंदिग्ध है। प्रकाशन में भी यदि सफाई, शुद्धि तथा सौष्ठव का अधिक ध्यान रखा जाता एवं ग्रन्थ सजिल्द बनाया जाता तो सोने में सुहागा' हो जाता। -हर्षचन्द्र कथालोक, दिल्ली मार्च १६८० मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास-जन तत्व दर्शन का एक बहुचर्चित पहलु है। आध्यात्मिक विकास या धर्म किसी व्यक्ति या मत विशेष की सीमा तक ही सीमित रहे, यह कैसे अभीष्ट हो सकता है। आत्म-विकास की संभावना में एकाधिकार की कोई संगति नहीं होती फिर भी कोई मत या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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