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लेश्या - कोश
सावधानी इसमें रखी जाती तो यह ग्रन्थ अत्यन्त विशुद्धरूप में मूद्रित किया जा सकता था । फिर भी श्री चोरड़ियाजी ने इस विषय में जो परिश्रम किया है वह धन्यवाद के पात्र है । यदि अन्त में शब्द सूची दी जाती तो सोने में सुगन्ध होती । यह ग्रन्थ इतः पूर्व प्रकाशित लेश्या कोश, क्रिया कोश की कोटिका ही है । इन ग्रन्थों में भी श्री चोरड़ियाजी का सहकार था । वे आगे भी इस कोटि के ग्रन्थ देते रहेंगे ।
हमें आशा है कि
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जैन सिद्धान्त के प्रमाणों
जैसा कि पुस्तक के नाम से स्पष्ट है एक मिथ्यात्व किस प्रकार अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता हैयह इस पुस्तक का विषय है । पुस्तक में नौ अध्याय हैं जिनमें विभिन्न दृष्टिकोणों से मिथ्यात्वी अपना आत्म विकास किस रूप में किस प्रकार कर सकता है - यह दर्शाया है के आधार पर इस विषय को स्पष्टतया पाठकों के समक्ष लेखक ने सरल सुबोध भाषा में रखा है जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं । शास्त्रीय चर्चा को अभिनव रूप में प्रस्तुत करने में लेखक सफल हुए हैं । ग्रन्थ संग्रहणीय है । प्रारम्भ में डा० ज्योतिप्रसाद के आमुख में इस विषय को संक्षेप में अच्छा खोल दिया है ।
- दलसुख मालवणिया अहमदावाद, संबोधी - १९८०
श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों के निरूपण में आगे जाकर कुछ आचार्यों में मतभेद भी हुए । उन मतभेद के विषयों में एक विषय मिथ्यात्वी सत्क्रिया वीतराग की आज्ञा में या आज्ञा बाहर भी रहा है । कुछ एक आचार्यों ने सम्यग् दर्शन को महत्व देने के लिए मिथ्यात्व के साथ-साथ मिथ्यात्वी की अच्छी बातों को भी गलत बताया और कुछ आचार्यों ने मिथ्यात्व को बुरा बताकर भी उनमें जो अच्छाइयाँ है उनको सिद्धवद्य का ही अंश बताया ।
वीर-वाणी, जयपुर
३ अगस्त, १९७८
तेरापंथ धर्म संघ के प्रणेता आचार्य श्री भिक्षु के सामने भी यह विषय आया, उन्होंने मिथ्यात्व को भयंकर तम आत्मघाती विष बताकर भी उनकी अच्छाइयों को नकारा नहीं और आगम प्रमाणों द्वारा उसे निरबद्य वीतराग की आज्ञा में, मोक्षमार्ग के साधक के रूप में स्वीकार किया ।
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उनके चतुर्थ पट्टधर श्री मज्जयाचार्य ने अपने ग्रन्थ भ्रम विध्वंसन का प्रथम अधिकार इसी विषय पर लिखा और आगम तथा युक्तियों से उसे सिद्ध किया । सही अर्थ में चाहे मिथ्यात्वी ही क्यों, एकेन्द्रिय निगोद में रहने वाला अभव्य आत्मा भी आत्मा है और उसमें भी यत्किंचित् ज्ञान, दर्शन, आदि सभी गुण
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