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लेश्या-कोश
४७९ यस्मादुक्तम्-“कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणामिति," तस्मादौदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, तथौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतवागद्रव्यसमूहसाचिव्यात जीवव्यापारो यः स वाग्योगः, तथौदारिकादिशरीरव्यापाराहृतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्यात जीवव्यापारो यः स मनोयोग इति, ततो तथैव कायादिकरणयुक्तत्यात्मनो वीर्यपरिणतिर्योग उच्यते तथैव लेश्यापीति ।
-ठाण. स्था १ । सू ५१ । टीका
प्रज्ञापना के वृत्तिकार कहते हैं
योग-परिणाम लेश्या है। क्योंकि सयोगी केवली शुक्ललेश्या परिणाम में विहरण करते हुए अबशिष्ट अन्तमुहर्त में योग का निरोध करते हैं तभी वे अयोगीत्व और अलेश्यत्व को प्राप्त होते हैं। अतः यह कहा जाता है कि योगपरिणाम ही लेश्या है। वह योग भी शरीर नामकर्म की विशेष परिणति रूप ही है क्योंकि कर्म कार्मण शरीर का कारण है और कार्मण शरीर अन्य शरीरों का। इसलिए औदारिक आदि शरीर वाले आत्मा की वीर्य परिणति विशेष ही काययोग है। इसी प्रकार औदारिक-वैक्रियाहारक शरीर व्यापार से ग्रहण किये गए वाक द्रव्यसमूह के सन्निधान से जीव का जो व्यापार होता है वह वाक योग है। इसी तरह औदारिकादि शरीर व्यापार से गृहीत मनोद्रव्य समूह के सन्निधान से जीव का जो व्यापार है वह मनोयोग है। अतः कायादिकरणयुक्त आत्मा की वीर्य परिणति विशेष को योग कहा जाता है और उसी को लेश्या कहते हैं।
। तेरहवें गणस्थान के शेष अन्तम हर्त के प्रारम्भ में योग का निरोध प्रारम्भ होता है। मनोयोग तथा वचनयोग का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है तथा काययोग का अर्ध निरोध होता है ( देखो ६५.१०)। उस समय में लेश्या का कितना निरोध या परित्याग होता है इसके सम्बन्ध में कोई तथ्य या पाठ उपलब्ध नहीं हुआ है। अवशेष अर्ध काययोग का निरोध होकर जब जीव अयोगी हो जाता है तब वह अलेशी भी हो जाता है। अलेशी होने की क्रिया योग निरोध के प्रारम्भ होने के साथ-साथ होती है या अर्ध काययोग के निरोध के प्रारम्भ के साथ-साथ होती है-यह कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह निश्चित है कि जो सयोगी है वह सलेशी हैं तथा जो अयोगी है वह अलेशी है।
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