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लेश्या-कोश
४३७ बर्तते, तथाभूतासु वर्तमानो(ऽपि) न प्रभूतकालमवतिष्ठते, किंतु स्तोकं, यतः स्ववीर्यवशात झटित्येव ताभ्यो व्यावर्तते, अथ प्रथमत एव कस्मात प्रवर्तते ? उच्यते, कर्मवशात, उक्त च
"लेसासु विसुद्धासु पडिवजइ तीसु न उण सेसासु । पुवपडिवन्नओ पुण होज्जा सव्वासु वि कहंचि ।। णऽच्चंतसंकिलिहासु थोवं कालं स हंदि इयरासु । चित्ता कम्माण गई तहा वि विरियं (विवरीयं) फलं देइ॥"
-पण्ण० प १ । सू ७६ । टीका तेजोलेश्या प्रभृति पीछे की तीन विशुद्ध लेश्या में परिहारविशुद्धिक कल्प का स्वीकरण होता है। पूर्वप्रतिपन्न परिहारविशुद्धि को किसी ने पूर्व में प्राप्त किया हो तो उसका सब लेश्याओं में कथंचित् रहना हो सकता है ; पर वह अत्यन्त संक्लिष्ट और अविशुद्ध लेश्या में नहीं रहता है। यदि वैसी लेश्या में रहे भी तो अधिक लम्बे समय तक नहीं रहता है; थोड़े काल तक रहता है , क्योंकि जिनकी सामर्थ्य से वह शीघ्र ही उससे निवृत्त हो जाता है। प्रश्न-तो पहले उस अविशुद्ध लेश्या में प्रवर्तन करता ही क्यों है ? कर्म के वशीभूत होकर करता है। कहा भी है
तीन विशुद्ध लेश्या में कल्प को स्वीकार करता है। लेकिन तीन अविशुद्ध लेश्या में कल्प को स्वीकार नहीं करता है। यदि कल्प को पूर्व में स्वीकार किया हुआ हो तो सर्व लेश्याओं में कथंचित् प्रवर्तन करता है लेकिन अत्यन्त संक्लिष्ट और अविशुद्ध लेश्या में प्रवर्तन नहीं करता है। अविशुद्ध लेश्या में प्रवर्तन करता है तो थोड़े समय के लिए करता है ; क्योंकि कर्म की गति विचित्र होती है। फिर भी वीर्य-सामर्थ्य फल देता है।"
RE७ लेसणाबंध
टीकाकारों ने 'लिश्यते-श्लिष्यते इति लेश्या' इस प्रकार लेश्या की व्याख्या की है। भगवतीसूत्र में 'अल्लियावणबंध' के भेदों में 'लेसणाबंध' एक भेद बताया गया है। आत्मप्रदेशों के साथ लेश्याद्रव्यों का किस प्रकार का बध होता है सम्भवतः इसकी भावना 'लेसणाबंध' से हो सके ।
से किं तं लेसणाबंधे ? लेसणाबंधे जन्नं कुड्डाणं कोट्टिमाणं खंभाणं पासायाणं कहाणं चम्माणं घडाणं पडाणं कडाणं छुहाचिक्खल्लसि
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