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लेश्या-कोश
इण न्याय नारकी देवता मांहि, भाव-लेस्या छव पावै 1 ते जीव परिणामी रा दश बोला में, लेस - परिणामी में आवे रे ।। ६४ ।। -झीणीचरचा ढाल १३
द्रव्य चक्रवर्ती ओर द्रव्य जिन नरक में होते हैं । वे वहाँ से निकल कर चक्रवर्ती और जिन बनते हैं । वे ( नरक में ही ) बांधते हैं । यह बंध शुभ भाव लेश्या में ही होता है ।
मनुष्य सद्गति का आयुष्य
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अशुभ लेश्या में तो जीव दुर्गति में जाता है । यह सूत्र पाठ में बतलाया गया है । जो शुभ मनुष्य का आयुष्य-बंध किया जाता है, वह शुभ भाव लेश्या में ही होता है ।
ज्योतिष, सौधर्म और ईशान देवों में तेजोलेश्या होती है, वह भी द्रव्य लेश्या है । वे देव वहाँ से च्युत होकर एकेन्द्रिय तिर्यच में उत्पन्न होते हैं । वह आयुष्य का बंध अशुभ भावलेश्या में ही होता हैं ।
इस न्याय से नरक और देवों में भावलेश्याएं छहों होती है और वे भावलेश्याएं ही जीव परिणाम के एक भेद लेश्या परिणाम के अन्तर्गत हैं । अवधिज्ञान, मनः पर्यव ज्ञानादि की उत्पत्ति के समय प्रशस्त अध्यवसाय के साथ लेश्या का विशुद्धिकरण भी आवश्यक है ।
जीव और लेश्या
सुर नारकी मांहे जीव-परिणामी रा, नव बोलां रो वर्णन न्हाली । लेस - परिणामी में द्रव्य नो वर्णन, सूत्र- गति विचित्र निहाली रे ॥ —भीणीचरचा ढाल १३ । गा ७१
देव और नरक में जीव-परिणाम के नौ बोलों का वर्णन भाव की दृष्टि से किया गया है । केवल एक लेश्या परिणाम का वर्णन द्रव्यलेश्या की दृष्टि से किया गया है। सूत्र की गति विचित्र होती है, यही कहा जा सकता है ।
हमारे कार्य विचारों के अनुरूप और विचार चारित्र को विकृत बनाने वाले पुद्गलों के प्रभाव और अप्रभाव के अनुरूप बनते हैं । कर्म पुद्गल हमारे कार्यों और विचारों के भीतर से प्रभावित करते हैं, तब बाहरी पुद्गल उनके सहयोगी बनते हैं । ये विविध रंगवाले होते हैं । कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन रंगों वाले पुद्गल विचारों की अशुद्धि के निमित्त बनते हैं । तेजस्, पद्म और
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