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लेश्या-कोश
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अर्थात् बाल तपस्वी को ( मिथ्यात्व का तप ) किसी दिन शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और विशुद्धमान लेश्या आदि के कारण विभंग अज्ञान उत्पन्न होता है । यह अश्रुत्वा मिथ्यात्वी ( अर्थात् जिसने कभी धर्म सुना नहीं था ) के लिए कहा गया है ।
लेश्या और जीव
1.
व्यंतर भवनपती में च्यार लेख्या कही छै, ज्योतिषि में तेजू एक । विमाणीक में तेजू पद्मशुक्ल कही ते जीव परिणामी में किण लेख रे || ५३॥
इहां असुभ लेस्या तीन कही नरक में द्रव्य - लेख्या अपेक्षाय । देवता में पिण द्रव्य अपेक्षा जूइ जूइ कही है ताय रे ॥ ५४ ॥ बीजूं तो नारकी नै देवता में, भाव लेख्या अर्थ अनोपम साख कहू छू, निर्मल सूण
ज्यो
व्यन्तर और भवनपति देवों में चार लेश्याए देवों में एक तेजोलेश्या है । वैमानिक देवों में लेश्याएं हैं । वे जीव परिणाम
बतलाई गई है । ज्योतिषी तेजस, पद्म और शुक्ल तीन किस न्याय से हो सकती है ।
छह पाय । न्याय रे ॥ ५५ ॥ -झीणीचरचा ढाल १३
यहाँ नरक में अशुभलेश्याए बतलाई गई है । यह सारा वर्णन द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से है । देवों में भी द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से ही अलग-अलग लेश्याए बतलाई गई है ।
अन्यथा नरक और देवों में भाव लेश्याएं छहों होती हैं । यह अनुपम अर्थ सूत्र साक्षी के साथ बताया जा रहा है । इसका निर्मल न्याय सुनो ।
सुर नारकी मांहे भाव छ लेस्या, उत्तराध्येन वृत्ति में विस्तार | तैयालीसमी गाथा नी टीका, अध्येन चौतीसमें सार रे || ५६ ॥ ——झीणीचरचा ढाल १३
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देव और नारकी में छहों
भाव लेश्याएं होती हैं । यह उत्तराध्ययन ३४ । ४३ गाथा की वृत्ति में विस्तार से बतलाया गया है । मिथ्यात्वी जब सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तब उसे विशुद्धलेश्या और शुभ परिणाम के साथ प्रशस्त अध्यवसाय भी होते हैं ।
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