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लेश्या-कोश
व ब्रह्मदेवलोक में पद्मलेश्या, इसके बाद सर्व देवों में ( छट्ट -लांतक देव से सर्वार्थ सिद्ध तक ) एक शुक्ललेश्या होती है ।
व्याख्या - भवनपति और व्यंतर देवों में कृष्ण, नील, कापोत व तेजोलेश्यावाले हैं अर्थात् इन देवों में कृष्ण, नील, कापोत व तेजोलेश्या होती है । उनमें भी परमाधाभी देवों ( भवनपति का एक भेद है ) में केवल कृष्णलेश्या है तथा ज्योतिषी सौधर्म व ईशान देवलोक के देवों में तेजोलेश्या जाननी चाहिए । सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मदेवलोक के देवों पद्मलेश्या होती है । ब्रह्मदेवलोक के बाद-लांतक से अनुत्तर विमान के देवों में शुक्ललेश्या होती है । सब देवों में लेश्या उत्तरोत्तर विशुद्ध, विशुद्धतरलेश्या होती है ।
ये लेश्यायें भावलेश्या के कारण रूप संसार में स्थित कृष्ण आदि द्रव्य रूप, द्रव्य लेश्याओं के रूप में ही स्वीकार करनी चाहिए । परन्तु भाव लेश्या रूप में नहीं । क्योंकि भाव लेश्या अनवस्थित रूप है । ये लेश्यायें बाह्यवर्ण रूप नहीं है । क्योंकि देवों के बाह्यवर्ण प्रज्ञापना आदि में अलग कहा है । और यह विवरण है ।
देव और लेश्या
देवों में कृष्णादि छहों लेश्या होती है । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है
'" देवश्चतुर्निकायाः । तृतीय पीत लेश्याः ।"
अर्थात् ज्योतिष्क देवों के पीत लेश्या होती है । प्रथम दो निकाय ( भवन वासी वाणव्यंतर ) के कृष्ण, नील, कापोत और पीत लेश्या होती हैं (द्रव्य) 19 भावलेश्या छहों हो सकती है । तत्वार्थ सूत्र में कहा है
— तत्त्वार्थ अ ४ । १-२
"पीत पद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ।”
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- तवार्थ अ ४ । २२ तथा भाष्य
अर्थात् सौधर्म - ऐशान कल्पों में पीत लेश्या होती हैं । सानत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पद्मलेश्या होती है । लान्तक से स्वार्थ सिद्ध पर्यंत वैमानिक देवों में शुक्ललेश्या होती हैं । परन्तु विशुद्ध, विशुद्धतर, विशुद्धतम उत्तरोत्तर कल्पों में फलित कर लेना चाहिए । भावलेश्या छहों ही होती हैं ।
१. पीतान्तर लेश्या -तत्त्वार्थ ४ । ७
२. आगम में द्रव्यलेश्या की अपेक्षा -- देव नारकी का वर्णन है ऐसा लगता है ।
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