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लेश्या-कोश
४५९ श्वेत-ये तीन पुद्गल विचारों की शुद्धि में सहयोग देते हैं। पहले वर्ग के रंग विचारों की अशुद्धि के कारण बनते हैं। यह प्रधान बात नहीं है किन्तु चारित्र मोह प्रभावित विचारों के सहयोगी जो बनते हैं, वे कृष्ण, नील और कापोत रंग के पुद्गल ही होते हैं। प्रधान बात यह है। यही बात दूसरे वर्ग के रंगों के लिए हैं।
कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन अप्रशस्त और तेजस् , पद्म और शुक्ल-ये तीन प्रशस्त लेश्याए हैं। पहली तीन लेश्याए बुरे अध्यवसाय वाली है अतः वे दुर्गति हेतु हैं। उत्तरवर्ती तीन लेश्याए भले अध्यवसाय वाली हैं अतः वे सुगति की हेतु हैं। सुभ असुभ लेस्या नै कर्म लेस्या कही, शुभ अशुभ कर्म बंधता । भली लेस्या नै धर्म लेस्या कही, उत्तराध्येन सिद्धत ॥१३॥ इण न्याय निर्जरा आश्रव मांहि, सुभ-लेस्या त्रिहु भाव । अध्येन चोतीसमो अवलोकी, निपुण ! विचारो न्याव ।।१४।।
-झीणीचरचा ढाल १ शुभलेश्या से शुभकर्म का बंध होता है और अशुभलेश्या से अशुभकर्म का बंध होता है। अतः शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की लेश्या को उत्तराध्ययन ( ३४/१ ) में कर्मलेश्या कहा है तथा शुभलेश्या को धर्मलेश्या कहा है।
इस न्याय से तीनों शुभलेश्याओं का आस्रव और निर्जरा में अवतरण होता है।
कर्मप्रदेश का उपचय योग से होता है। पंच संग्रह में चंदर्षि महत्तर ने कहा है
"इह सर्वोऽपि कर्मप्रदेशोपचयो योगात भवति, “जोगापयडि पएस" इति वचनात् ।
-पंच संग्रह भाग ३ । पृ० ७४६ इससे जाना जा सकता है अकषायी के लेश्या संबंधी बंध-स्थितिबंध, अनुभाग बंध नहीं है परन्तु प्रकृति बंध व प्रदेश बंध है ।
रंगों के द्वारा मनुष्य के स्वभाव की पहचान होती है। हम नैतिक हैं या अनैतिक, उत्तेजित है या अनुत्तेजित तथा हम उदार स्वभाव के हैं या स्वार्थी
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