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लेश्या-कोश लेसासु छसु काएसु, छक्के आहारकारणे । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ।।
-उत्त० अ ३१ । गा ८ । पृ० १०३८
जो साधु छः लेश्या, छः काय तथा आहार करने के छः कारणों में सदा सावधानी बरतता है वह भव भ्रमण नहीं करता। साधु को छः लेश्याओं में कसी सावधानी बरतनी चाहिए- यह एक विचारणीय विषय है।
'६६ ३ देवता और उसकी दिव्य लेश्या
xxx दिव्वेणं वन्नेणं दिव्धेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघयणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिव्वाए जुईए दिवाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा x xx।
-पण्ण० प २ । सू २८ । पृ० २६६ दिव्य वर्ण आदि के साथ देवताओं की लेश्या भी दिव्य होती है तथा दसों दिशाओं में उद्योतमान यावत् प्रभासमान होती है। ऐसा पाठ प्रज्ञापना पद २ में अनेक स्थलों पर हैं। टीकाकार ने दिव्य लेश्या का अर्थ देह तथा वर्ण की सुन्दरता रूप लेश्या-देहवणेसुन्दरतया"-किया है। __ ऐसा पाठ देवताओं के वर्णन में अनेक जगह हैं । '६६ ४ नारकी और लेश्या परिणाम
इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा! अणि जाव अमणामं, एवं जाव अहेसत्तमाए [ एवं णेयव्वं ] ।
-जीवा० प्रति ३ । उ ३ । सू ६५ । पृ० १४५-१४६ पोग्गलपरिणामे वेयणा य लेसा य नाम गोए य । अरई भए य सोगे खुहापिवासा य वाही य ।। उस्सासे अणुतावे कोहे माणे य माया लोहे य । चत्तारि य सण्णाओ नेरइयाणं तु परिणामे ।।
-जीवा० प्रति ३ । उ ३ । सू ६५ । टीका । पृ० १४६
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