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लेश्या-कोश
में, कृष्णादि लेश्याओं में, सम्यग्दृष्टि आदि तीन दृष्टियों में, चक्षुदर्शनादि चार दर्शनों में, आभिनिवोधिकज्ञानादि ५ ज्ञानों में, अतिअज्ञान आदि ३ अज्ञानों में, आहारादि ४ संज्ञाओं में, औदारिकादि ५ शरीरों में, मनोयोग आदि ३ योगों में, साकारोपयोग, अनाकारोपयोग में वर्तता हुआ जीव तथा जीवात्मा एक ही है-भिन्न-भिन्न नहीं है।
इसके विपरीत अन्यतीर्थियों की जो प्ररूपणा है उसका भगवान् ने यहाँ निराकरण किया है।
प्राणातिपात आदि भाव-विभावों, छओं लेश्याओं यावत् अनाकार उपयोग में विचरण करता हुआ जीव अन्य है, जीवात्मा अन्य है-अन्य तोर्थियों का यह कथन गलत है। भगवान् महावीर कहते हैं कि वास्तविक सत्य यह है कि प्राणातिपात यावत् छओं लेश्याओं यावत् अनाकार उपयोग आदि भाव-विभावों में विचरण करता हुआ जीव वही है, जीवात्मा वही है। दोनों अभिन्न हैं ।
सांख्यादि मतों के अनुसार भाव-विभावों में विचरण करता हुआ जीव ( प्रकृति ) अन्य है तथा जीवात्मा ( पुरुष ) अन्य है---इसका निराकरण करते हुए भगवान् कहते हैं कि दोनों अन्य-अन्य नहीं हैं। 'CE १२ ( सलेशी ) रूपी जीव का अरू पत्व में तथा ( अलेशी ) अरूपी जीव
___ का रूपत्व में विकुर्वणः
देवे णं भंते ! महिड्डिए, जाव महेसक्खे पुवामेव रूवी भवित्ता पभू अरूविं विउव्वित्ता णं चिहित्तए ? नो इण सम, से केणणं भंते ! एवं वुच्चइ-देवेणं जाव नो पभू अरूविं विउवित्ता णं चिट्ठित्तए ? गोयमा ! अहमेयं जाणामि, अहमेयं पासामि, अहमेयं बुज्झामि, अहमेयं अभिसमन्नागच्छामि, मए एयं नायं, मए एयं दिट्ठ, मए एयं बुद्धं, मए एयं अभिसमन्नागयं-जण्णं तहागयस्स जीवस्स सरूविम्स, सकम्मस्स, सरागस्स, सवेयस्स, समोहस्स, सलेसस्स, ससरीरस्स, ताओ सरीराओ अविष्पमुक्कस्स एवं पन्नायइ, तं जहा-कालते वा, जाव-सुक्किलत्ते वा, सुब्भिगंधत्ते वा, दुब्भिगंधत्ते वा, तित्ते वा, जाव-महुरत्त वा, कक्खडत्ते वा, जाव लुक्खत्ते वा से तेण?णं गोयमा ! जाव चिट्ठित्तए ।
-भग श १७ । उ २ । सू १० । पृ० ७५६-५७
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