________________
लेश्या-कोश .०४.३८ लेस्सकम्मे ( लेश्याकर्म)
-षट् ० खं ४ । सू ४५ । पु ६ । पृ० २३४ टीका-लेस्सकम्मे त्ति अणियोगद्दारमंतरंगछलेस्सापरिणयजीवाणं बज्झकजपरूवणं कुणइ।
टीका-[ लेस्साओ ] किण्णादियाओ, तासिं कम्मं मारणविदारण-चूरणादि-किरियाविसेसो, तं लेस्सायम्मं वत्तइस्सामो।
-षट् ० पु १६ । पृ० ४६० __ षट् खण्डागम में २४ अनुयोगद्वारों में लेश्याकर्म नाम का अनुयोगद्वार है, जिसमें अन्तरंग छः लेश्याओं से परिणत जीवों के बाह्य कार्यों का निरूपण किया गया है।
कृष्णादि लेश्याओं से अभीभूत होकर जीव जो मारण, विदारण, चोरी आदि बाह्य कार्य करता है वह लेश्याकर्म ।
०४.३६ लेस्सद्धादो ( लेश्याद्धा)
-षट ० खं १ । भा ६ । सू ३०८ । पु ५ । पृ० १४८ मूल-संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरंकालादो होदि, णाणेगजी वं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ।
टीका-कुदो ? जाणाजीवपवाहवोच्छेदाभावा। एगजीवस्स वि, लेस्सद्धादो गुणद्धाए बहुत्तुवदेसा।
लेण्याद्धा-लेश्याकाल । लेश्या की समय स्थिति ।
तेजो और पद्म लेश्या वाले संयतासंयत, प्रमत्तरांयत और अप्रमत्तसंयत जीवों का अन्तर कितने काल का होता है ? नाना जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है, क्योंकि उक्त गूणस्थानवाले नाना जीवों के प्रवाह का कभी विच्छेद नहीं होता है तथा एक जीव की अपेक्षा भी अन्तर नहीं है, क्योंकि लेश्या के काल से गुणस्थान का काल बहुत बड़ा है, ऐसा उपदेश पाया
जाता है
.०४४० लेस्संतरसंकंतिमंतरेण (लेश्यान्तरसंक्रान्तिमन्तरेण )
-षट० खं १ । सू ३२३-२५ । पु ५ । पृ० १५३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org