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लेश्या - कांश
मुहुत्तद्ध तु जहन्ना, दोष्णुदही पलियमसंखभागब्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा
पम्हलेसाए ॥
तेऊलेसाए ॥ मुहुत्तद्ध तु जहन्ना, दस होंति य सागरा मुहुत्तहिया * । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा मुहुत्तद्ध तु जहन्ना, तेत्तीसं सागरा उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा एसा खलु लेसाणं,
मुहुत्तहिवा । सुक्कलेसाए ॥
ओहेण ठिई उ वणिया होई | - उत्त० अ ३४ | गा ३४ से ४० । पृ० १०४७
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सामान्यतः भावलेश्या की स्थिति द्रव्यलेश्या के अनुसार ही होनी चाहिये अतः उपरोक्त पाठ द्रव्य और भावलेश्या दोनों में लागू हो सकता है । नारकी और देवता की भावलेश्या में परिणमन हो तो वह केवल आकारभावमात्र, प्रतिबिम्बभावमात्र होना चाहिये क्योंकि वहाँ मूल की द्रव्यलेश्या का अन्य लेश्या में परिणमन केवल आकारभावमात्र, प्रतिबिम्बमात्र होता है । अतः नारकी और देवता में यदि "भाव परावत्तिए पुण सुर नेरियाणं पि छल्लेसा" होती है वह प्रतिबिम्ब भावमात्र होनी चाहिये।
४६ भावलेश्या और भाव ४६१ जीवोदय निष्पन्त भाव
(क) से किं तं जीवोदयनिफन्ने ? अणेगविहे पन्नत्ते, तं जहा - नेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे, पुढविकाइए जाव तसकाइए, कोहकसाइ जाव लोभकसाइ, इत्थीवेयए पुरिसवेयए नपुंसग वेयए, कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से, मिच्छादिट्ठी सम्मदिट्ठी सम्म मिच्छादिट्ठी, अविरए, असण्णी, अण्णाणी, आहारए, छउमत्थे, सजोगी, संसारत्थे, असिद्ध सेतं जीवोदयनिफन्ने ।
• पाठान्तर—दसउदही होइ मुहुत्तमब्भहिया |
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- अणुओ० सू १२६ । पृ० ११११ - पंचश्वे ० भा २ | पृ० ११०
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