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लेश्या-कोश
३७५ एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया। मणुस्सा जहा-जीवा, नवरं सिद्ध-विरहिया भाणियव्वा । वाणमंतरा-जोइसिया-वेमाणिया तहा नेरइया।
सलेस्सा जहा ओहिया। कण्हलेसस्स, नीललेसस्स, काउलेसस्स जहा ओहिया जीवा, नवरं पमत्ताप्पमत्ता न भाणियव्वा। तेउलेसस्स, पम्हलेसस्स, सुक्कलेसस्स जहा ओहिया जीवा, नवरं सिद्धा न भाणियव्वा ।
-भग० श १ । उ १ । सू ४६ से ५३
नारकी जीव आत्मारम्भी भी है, परारम्भी भी है, तदुभयारम्भी भी है, किन्तु अनारम्भी नहीं है। अविरति भी अपेक्षा ऐसा कहा जाता है कि नारकी जीव आत्मारम्भी भी है, परारम्भी भी है, तदुभयारम्भी भी है, किन्तु अनारम्भी नहीं है।
इसी प्रकार असुरकुमार के विषय में भी जान लेना चाहिए । यावत् पंचेन्द्रिय तिथंच तक जान लेना चाहिए ।
मनुष्य पूर्वोक्त सामान्य जीवों की तरह जानना चाहिए परन्तु विशेषता यह है कि इन जीवों में सिद्धों को नहीं कहना चाहिए ।
वाणव्यन्तर से वैमानिक देवों तक नारकी जीवों की तरह जानना चाहिए।
सलेशी जीव सामान्य जीवों की तरह कहना चाहिए। कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि यहाँ पर प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं कहना चाहिए। क्योंकि इन लेश्यावाले सब प्रमत्त ही होते हैं। तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और शुक्ललेश्यावाले जीव सामान्य जीवों की तरह कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि सिद्ध जीव नहीं कहना चाहिए। ( देखो '७२)
नोट-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्याओं में संयत-असंयत ; प्रमादी और अप्रमादी के भी भेद हैं ।
प्रमादी में भी तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या होती हैं । उनमें शुभयोग भी होता है और अशुभयोग भी। यदि वह उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करता है तो अनारम्भी है और यदि ऐसा नहीं करता है तो अनारम्भी है।
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