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लेश्या-कोश विनय ! विभावय गुणपरितोषं,
निजसुकृताप्तवरेषु परेषु । परिहर दूर मत्सरदोष,
विनय ! विभावय गुणपरितोषम् ।।
__ अर्थात् हे विनय ! तू गुणों के प्रति आनन्द का अनुभव कर । जिन्हें स्वयं के सुकृत का वर प्राप्त है, उन लोगों के प्रति होने वाले मात्सर्य भाव को मन से दूर कर । प्रमोद भावना के कारण प्रशस्त लेश्या का प्रवर्तन होता है।
लेश्या विशुद्धि का उपाय-ध्यान
विधायक भाव शुभ है और निषेधात्मक भाव अशुभ है। यह मनो विज्ञान की भाषा है। आगमिक भाषा में अठारह पाप अशुभ भाव है। इनमें हिंसा, असत्य, चार कषायादि सब असत् प्रवृत्तियों का समावेश है।
[प्रेक्षा व्यान के द्वारा लेश्या में परिवर्तन करना होगा। लेश्या बदलेगी तो भाव बदलेंगे। भाव बदलेंगे तो जीव-धारा बदल जायेगी। और प्रशश्त लेश्या में अन्तकरण में अवरुद्ध बना हुआ आनन्द का स्रोत प्रवाहित हो चलेगा।
मनुष्य का व्यवहार भी एक दर्पण है। उस पर उसके भावों का प्रतिबिम्ब पड़ता है। भाव विशुद्ध होते हैं, प्रतिबिम्ब सुन्दर आता है। भावों में मलिनता होती है तो वह दर्पण के तल पर उतर जाती है। इस दृष्टि से जाग्रत व्यक्ति अपनी भावधारा की विशुद्धि का प्रयत्न करता है। भावों की निर्मलता देने वाली चेतना का जागरण होता है लेश्या ध्यान से। प्रशस्त लेश्याओं के ध्यान से आत्मा पवित्रता को प्राप्त होती है।
लेश्या का अर्थ है-भावधारा। वह प्रशस्त भी होती है, अप्रशस्त भी होती है ।] लेश्या और ध्यान १ औधिक ध्यान
अथ लेश्या-ध्यानयोः कः प्रतिविशेषः ! उच्यते-लिश्यतेश्लिष्यते कर्मणा सह यथा जीवः सा लेश्या-कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनितो जीवस्य शुभाशुभरूपः परिणामविशेषः । उक्तन
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