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लेश्या-कोश
४३१ मोहकर्म रो उदै-निपन दै, असुभ-लेस्या त्रिहु व्याप । पाप कर्म बंधै एह थी, सातकर्म सू नहि बंधै पाप ॥१७॥ तेजु पदम भाव-लेस्या ए, तीन भाव सुविहाण । उदै क्षयोपशम परिणामिक ए, सातमां तांइ पिछाण ।।१८।। भावे शुक्ल लेस्या इय कहिये, च्यार वाव चित्त छाण । उदै खायक खयोपसम जाणो, बलि परिणामिक जाण ॥१।।
-झीणीचरचा, ढाल १ । श्लो १५ से १६ अर्थात् छओं द्रव्य लेश्याए एक पारिणामिक भाव में समाविष्ट होती है। कृष्णादि-प्रथम तीन लेश्याए औदयिक और पारिणामिक-इन दो भावों में समाविष्ट होती है।
तीनों अशुभ भाव लेश्याए मोहकर्म के उदय से निष्पन्न होती है । मोहकर्म के उदय-निष्पन्न भाव से पापकर्म का बन्ध होता है। शेष सात कर्मों के उदय निष्पन्न भाव से पापकर्म का बन्ध नहीं होता।
तेजस और पद्म-ये दो भाव लेश्याए; औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक-इन तीन भावों में समाविष्ट होती है। इनका अस्तित्व सातवें गुणस्थान तक हैं।
भाव शुक्ललेश्या औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक-इन चार भावों में समाविष्ट होता है।
नोट-आधुनिक चर्चा वार्ता में भाव लेश्या में औपशमिक भाव का विवेचन भी किया जाता है । अतः भाव लेश्या में औदयिक आदि पांचों भाव होते हैं। १० लेश्या और सावद्य-निरवद्य
तीन माठी लेस्या नै च्यार कषाय नै रे, तीन बेद मिथ्यात नै अव्रत रे। ए बारै बोला नै सावद्य जाणज्यो रे, मोह उदा सू यांरी प्रव्रत्त रे। निरवद्य भाव लेश्या तीनु भली रे, प्रवत नाम उदय थी जाण रे।
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