________________
लेश्या-कोश
४२५
पुद्गल में स्वाभाविक परिणमन के अतिरिक्त जीव कृत प्रायोगिक परिणमन भी होता है। उसे अजीवोदय निष्पन्न भाव कहा जाता है। शरीर और उसके प्रयोग से परिणत पुद्गल वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये अजीवोदय निष्पन्न भाव हैं । जीव में स्वाभाविक और पुद्गल कृत प्रायोगिक परिणमन होता है। '२ द्वादशमां गुणठणा तांई, सुकललेस्या जे पाय ।
उदै खयोपशम परिणामिक छै, खायक भाव न थाय ॥२०॥ तेरसमें गुणठाणे सुकल-लेस्या छै ते कुण भाव ? उदै खायक नै परिणामिक छै, निपुण ! विचारो न्याय ॥२१॥ समचे भली भाव लेन्या ए, किसो भाव अवधार ? उदै खायक खयोपशम परिणामी, उपशम बरजी च्यार ॥२२॥ ए उद-भाव ते किसा कर्म नो, उदै निपन कहिवाय ? नाम कर्म नो उदै-निपन छै, पुन्य बंधै तिण न्याय ॥२३॥
-झीणीचरचा, ढाल १
२०-वारहवें गुणस्थान में प्राप्त भाव-शुक्ल-लेश्या का समावेश औदयिक, क्षायोशमिक और पारिणामिक-इन तीन भावों में होता है। क्षायिक भाव में नहीं होता है।
२१-तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त शुक्ल लेश्या का समावेश औदयिक, क्षायिक और पारिणामिक-इन तीन भावों में होता है।
२२-सभी प्रशस्त भाव लेश्याओं का औपशमिक भाव को छोड़कर शेष चार भावों में समावेश होता है।
२३-चूकि शुभ लेश्याओं से पुण्य कर्म का बन्धन होता है, अतः वे लेश्याए नाम कर्म के उदय से निष्पन्न औदयिक भाव में समाविष्ट होती है।
व्याख्या-लेश्या की संरचना में नाम कर्म के उदय और अन्तराय कर्म के क्षय और क्षयोपशक का योग होता है, उसके अशुभ होने में मोह कर्म निमित्त बनता है। जिस समय मोह कर्म का उपशम, क्षय, क्षयोपशम या अनुदय होता है, उस अवस्था में लेश्या शुभ बन जाती है। भाव शुक्ल लेश्या का अवतरण चार भावों में होता है, औपशमिक भाव में नहीं होता। यह प्रतिपादन अन्तराय कर्म की दृष्टि से है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org