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लेश्या - कोश
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'ध्यानेन' आर्त्तादिना करणभूतेन 'लेश्या' कृष्णादिका भवति यदा यादृशं प्रशस्तम प्रशस्तं वा ध्यानं भवति ताद्यगेव प्रशस्ता अप्रशस्ता वा लेश्याऽपीति भावः । 'भाणंतरतो व' त्ति ध्यानान्तरम् - अदृढाध्यवसायरूपं चित्तं यद् वा ध्यानस्य ध्यानस्य चान्तरिका ध्यानान्तरमुच्यते, तत्र वा वर्त्तमानस्य षण्णां लेश्यानामन्यतरा लेश्या भवति ।
- बिह० उ १ । भाष्य गा १६४० । टिप्पण
भाव लेश्या आत्मा का - मानसिक परिणाम है । वह आत्मपरिणाम मानध्यान से अभिन्न है ऐसा माना जाता है। आर्त्तादि ध्यान के निमित्त से कृष्णादि लेश्यायें होती हैं । जब जैसा प्रशस्त या अप्रशस्त ध्यान होता है तब वैसी ही प्रशस्त या अप्रशस्त लेश्या भी होती है । अदृढ अध्यवसाय रूप चित्त या दो ध्यानों के बीच में होने वाली ध्यानान्तर से भी छओं लेश्याओं में से कोई भी लेश्या होती है ।
(क) मिथ्यात्वाविरति पतन्ति जंतवः श्वभ्रं
क्रोधरौद्र-ध्यान-परायणाः । कृष्णलेश्यावशं गताः ॥
- ज्ञान० । प्रक ३६ | श्लो १५
ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है- रोद्रध्यान में में पड़ते हैं । यह रौद्रध्यान कृष्ण लेश्या के वलकर संयुक्त है फल से चिह्नित है |
* ६५२ रौद्रध्यान
(ख) अवहट्ट अट्टरुद्दे महाभये सुग्ादीए पच्चू से |
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तत्पर प्राणी नरक और नरकपात के
आशा टीका - अवहट्ट अपहृत्य । महाभये दुर्गति दुःखहेतुदुरित बंधनिदानत्वात् × × ×
- भगअ० गा १७०४
( ग ) xxx । तदेतच्चतुर्विधं रौद्रध्यानम् अतिकृष्णनीलकापोतलेश्याबलाधानं प्रमादाधिष्ठानं नरकगतिफलावसानम् । एवमुक्ताप्रशस्तध्यानपरिणत आत्मा तप्तायस्पिण्ड इवोदकं कर्मादन्ते ।
- राज० अ है । सू ३५
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