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लेश्या-कोश धर्मध्यानस्य विज्ञ या स्थितिरान्तमुहू'त्तिकी । क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्लैव शाश्वती ।।
-ज्ञाना० प्रक ३४ । गा १४ धर्मध्यान की स्थिति अन्तमुहर्त है। इसका भावक्षायोपशमिक है। और लेश्या सदा शुक्ल ही रहती है। अर्थात् थर्मध्यान वाले के क्षायोपशमिक भाव और शुक्ललेश्या होती है।
अट्टरुदाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि झायए। पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ।। सरागे वीयरागे वा उवसंते जिईदिए । एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणामे ।।
-उत्त० अ ३४ । गा ३१, ३२ आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर जो पुरुष धर्म और शुक्ल ध्यानों को ध्याता है तथा प्रशांतचित्त, दमितेन्द्रिय, पाँच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त है एवं सरागी अथवा वीतरागी है, उपशांत है, जितेन्द्रिय है ; वह शुक्ललेश्या के लक्षण वाला होता है।
होंति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीय पम्ह-सुक्काओ। धम्मज्माणोवगयस्स तिव्व-मंदाइभेयाओ॥
-ध्याश० गा ६६ एदम्हि धम्मज्झाणे पीय-पउम-सुक्कलेस्साओ तिष्णि चेव होंति, मंद-मंदयर-मंदतमकसाएसु एदस्सज्माणस्स संभवुवलंभादो। एत्थ गाहाओ।
होंति कम्मविसुद्धाओ लेस्साओ पीय-पम्हसुक्काओ। धम्मज्माणोवगयस्स तिव्व मंदादिभेयाओ।
-षट्० खण्ड ५, ४ । सू २६ । टीका । पु १३ । पृ० ७६ इस धर्मध्यान में पीत, पद्म और शुक्ल-ये तीन लेश्याएं होती है क्योंकि कषायों के मन्द, मदन्तर और मन्दतम होने पर धर्मध्यान की प्राप्ति संभव है। इस विषय में गाथा
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