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लेश्या-कोश
४०९ धर्मध्यान को प्राप्त हुए जीव के तीव्र-मंदादि भेदों को लिए हुए क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ललेश्या होती है।
ध्यान और शुभलेश्या के द्वारा मिथ्यात्वी भी भावितात्मा अणगार के पद को प्राप्त कर सकता है। कहा है
"परे मोक्षहेतू"
-तत्त्वार्थ अ६ । सू ३०
भाष्य-धर्मशुक्ले मोक्षहेतू भवतः। अर्थात् धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण है। स्वभाव से विनीत दाक्षिण्य से युक्त और समतावान वेश्यायन बालतपस्वी धर्मध्यान में तत्पर मध्याह्न समय में आतापना लेता था । चूकि धर्मध्यान में प्रशस्त लेश्या नियम से होती है। गुणस्थान के आरोहण के समय लेश्या का प्रशस्त होना जरूरी है।
चतुर्थ शुक्लध्यान लेश्या रहित जीवों को होता है। वहाँ योग का सर्वथा अभाव है ही।
समवाओ के टीकाकार अभयदेव सूरि ने कहा है
कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । म्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥
-समवाओ० समवाय ६ । टीका कृष्ण वा अन्य वर्ण के कर्म आदि पुद्गलों के संयोग से आत्मा का जो परिणाम होता है वहाँ लेश्या शब्द का प्रयोग होता है।
धर्मध्याने भवेद्भावः क्षायोपशमिकादिकः । लेश्या क्रमविशुद्धाःस्युः पीतपझसिता पुनः॥
-योगशा० प्रका १० । श्लो १६ धर्मध्यान में क्षयोपशमादिक भाव होते हैं धर्मध्यान में विशुद्ध लेश्या होती है। पीत-शव-शुक्ल लेश्या होती है । १. त्रिषष्टि० पर्व १० । सर्ग ४ । श्लोक ११२
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