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लेश्या-कोश x x x ‘भवकारणमातरौद्र' इति तत्र भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः संसार एव, तथाऽप्यत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः (त्ते) तिर्यग्नरकभवग्रह इति गाथार्थ x x x ।
-ध्याश० गा ५ । टीका xxx अभिसंधानमभिसंधिरभिप्रायः। स चार्तरौद्रध्यानयोस्तीव्रः प्रकृष्टोऽभिसंधिः पंचास्तवमलबहुलश्चासावार्तरौद्रतीब्राभि संधानश्चेति ।
-प्रशम० श्लो २० । टीका
आर्तध्यान से कर्मरूपी मल को बहुलता से मंचय करता है।
चारों प्रकार के आर्तध्यान कृष्ण, नील और कापोतलेश्या वालों के होते हैं। ये अज्ञान मूलक, तीव्रपुरुषार्थ जन्य, पाप प्रयोगाधिष्ठान, नानासंकल्पों से आकुल, विषयतृष्णा से परिव्याप्त, धर्माश्रयपरित्यागी, कषायस्थानों से युक्त, अशांतिवर्धक, प्रमादमूलक, अकुशलकर्म के कारण, कटुक फल वाले असाता के बंधक और तियंचगति में ले जाने वाले हैं । अर्थात् आर्तध्यान का फल अनंत दुःखों से व्याप्त तिर्यञ्चगति हैं।
आर्तध्यान का फल-सामान्यतः संसारवर्द्धक है, विशेषतः तिर्यंचगति में गमन करानेवाला है।
मूढचित्त होना, शल्यभाव होना, माया-आरंभ और परिग्रह का होना-ये सब आर्तध्यान के फल हैं। (क) कावोयनीलकाला, लेसाओ णाइसंकिलिट्ठाओ। अट्टज्माणोवगस्स कम्मपरिणामणियाओ॥
-ध्याश० गा १४ टीका-कापोत-नील-कृष्णलेश्याः, किम्भूता ? 'नातिसंक्लिष्टा' रौद्रध्यानलेश्यापेक्षया नातीवा शुभानुभावा भवन्तीति क्रिया, कस्येत्यत आह-आर्तध्यानोपगतस्य, जन्तोरिति गम्यते, किं निबंधना एताः ? इत्यत आह-कर्मपरिणामज निताः, तत्र 'कृष्णादि
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