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लेश्या-कोश २२ करणों में 'लेश्याकरण' भी एक है। लेश्याकरण छः प्रकार का है, यथा-कृष्णलेश्याकरण यावत् शुक्ललेश्याकरण । सभी जीव दण्डकों में लेश्याकरण कहना चाहिए लेकिन जिसमें जितनी लेश्या हो उतने लेश्याकरण कहने चाहिए। टीकाकार ने 'करण' की इस प्रकार व्याख्या की है
टीका-तत्र क्रियतेऽनेनेति करणं-क्रियायाः साधकतमं कृतिर्वा करणं-क्रियामानं, नन्वस्मिन् व्याख्याने करणस्य निवृत्तेश्च न भेदः स्यात्' निवृत्तेरपि क्रियारूपत्वात, नैवं, करणमारम्भक्रिया निवृत्तिन्तु कार्यस्य निष्पत्तिरिति ।
जिसके द्वारा किया जाय वह करण । क्रिया का साधन अथवा करना वह करण। इस दूसरी व्युत्पत्ति के प्रमाण से करण व निवृत्ति एक हो गई ऐसा नहीं समझना, क्योंकि करण आरम्भिक क्रिया रूप है तथा निवृत्ति कार्य की समाप्ति रूप है।
.९२ लेश्यानिवृत्ति____ कइविहा णं भंते ! लेस्सानिव्वत्ती पन्नत्ता ? गोयमा ! छविहा लेस्सानिवत्ती पन्नत्ता, तंजहा-कण्हलेस्सानिव्वत्ती जाव सुकलेस्सानिवत्ती । एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जइ लेस्साओ ( तस्स तत्तिया भाणियव्वा )।
-भग० श १६ । उ ८ । सू १९ । पृ० ७८८ छः लेश्यानिवृत्ति होती हैं, यथा-कृष्णलेश्यानिवृत्ति यावत् शुक्ललेश्यानिवृत्ति । इसी प्रकार दण्डक के सभी जीवों के लेश्यानिवृत्ति होती हैं। जिस दण्डक में जितनी लेश्या होती है उसमें उतनी लेश्यानिवृत्ति कहना चाहिए । टीकाकार ने निवृत्ति की व्याख्या इस प्रकार की है
टीका-निर्वर्तनं-निवृत्तिनिष्पत्तिर्जीवस्यै केन्द्रियादितया निवृत्तिर्जीवनिवृत्तिः।
निवृत्ति-निर्वर्तन अर्थात् निष्पन्नता । यथा-जीव का एकेन्द्रियादि रूप से निवृत्त होना जीवनिवृत्ति । लेश्यानिवृत्ति का अर्थ इस प्रकार किया जा
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