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लेश्या-कोश ____टीकाकार का भाव है कि कृष्ण-नील-कापोतलेशी मनुष्यों में संयत-असंयत भेद भी नहीं करने चाहिए क्योंकि इन लेश्याओं में प्रमत्तसंयतता भी संभव नहीं है।
- लेकिन आगमों में कई स्थलों में संयत में कृष्ण-नील-कापोत लेश्या होती है-ऐसा कथन पाया जाता है । ( देखो पाठ-'५३ २८ तथा '६६ १ )
तेजोलेशी, पद्मलेशी तथा शुक्ललेशी जीव औधिक जीवों की तरह कोई एक आत्मारम्भी, परारम्भी, उभयारम्भी नहीं है, अनारम्भी है, कोई एक आत्मारम्भी, परारम्भी तथा उभयारम्भी है, अनारम्भी नहीं है । इनमें संयत असंयत भेद कहने चाहिए तथा संयत में प्रमत्त-अप्रमत्त भेद कहने चाहिये । अप्रमत्तसंयत अनारंभी होते हैं। प्रमत्तसंयत शुभयोग की अपेक्षा से अनारम्भी होते हैं तथा अशुभयोग की अपेक्षा से आत्मारम्भी, परारम्भी तथा उभयारम्भी हैं, अनारम्भी नहीं हैं। तथा इन लेश्याओं में जो असंयती हैं वे अविरति की अपेक्षा से आत्मारम्भी, परारम्भी तथा उभयारम्भी हैं, अनारम्भी नहीं हैं । •७३ सलेशी जीव और कषाय
७२.१ सलेशी नारकी में कषायोपयोग के विकल्प__इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए जाव ( पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं ) काऊलेस्साए वट्टमाणा ? (नेरइया किं कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ता, लोभोवउत्ता) गोयमा ! सत्तावीसं भंगा। x x x एवं सत्तवि पुढवीओ नेयवाओ, नाणत्तं लेस्सासु । संग्रहणी गाहा-काऊ य दोसु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए ।
पंचमीयाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ।।
-भग० श १ । उ ५ । सू १८१, १८६ । पृ० ४०१ रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों के एक-एक नरकावास में बसे हुए कापोतलेशी नारकी क्रोधोपयोगवाले, मानोपयोगवाले, मायोपयोगवाले तथा लोभोपयोगवाले होते हैं। उनमें एकवचन तथा बहुवचन की अपेक्षा से कोधोपयोग आदि के निम्नलिखित २७ विकल्प होते हैं।
(१) सर्वक्रोधोपयोगवाले, (२) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक मानोपयोगवाला, (३) बहु क्रोधोपयोगवाले, बहु मानोपयोगवाले, (४) बहु क्रोधोपयोगवाले, एक
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