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लेश्या-कोश मणुस्सा णं भंते ! सत्वे समाउया ? सव्वे समोववन्नगा ? गोयमा ! नो इण? समट्ठ।
से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ-मणुस्सा नो सव्वे समाउया ? नो सव्वे समोववन्नगा ?
गोयमा ! मणुस्सा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-(१) अत्थेगइया समाउया समोववनगा । (२) अत्थेगइया समाउया विसमोववनगा। (३) अत्थेगइया विसमाउया समोववनगा। (४) अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा। से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-मणुस्सा नो सव्वे समाउया, नो सव्वे समोववन्नगा। ___ '१२ वाणमंतर' जोतिस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा, नवरंवेयणाए णाणत्तंमायिमिच्छदिट्ठीउववनगा य अप्पवेयणतरा, अमायिसम्मदि हिउववन्नगा य महावेयणतरा भाणियव्वा जोतिसवेमाणिया ।
-भग० श १ । उ २ । सू६४ से १००
–पण्ण० १७ । उ २ । सू ६ से ११ १३ मनुष्यों का आहारादि से सम्बन्धित निरूपण नारकी के समान कहना चाहिए। उनमें अन्तर इतना ही है कि जो महाशरीरवाले हैं, वे बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं और कभी-कभी आहार करते हैं, इसके विपरीत जो अल्पशरीरवाले है वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं और बार-बार आहार करते हैं । शेष वेदनापर्यन्त सब वर्णन नारकी के समान समझना चाहिए।
सब मनुष्य समान क्रियावाले नहीं है क्योंकि मनुष्य तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि व सम्यगमिथ्यादृष्टि । उनमें जो सम्यग्दृष्टि है वे तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-संयत, संयतासंयत और असंयत । उनमें जो संयत है वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सराग संयत और वीतरागसंयत ।
१. प्रज्ञापनायां (१७।१ ) अस्य रचना सुस्पष्टास्ति यथा-वाणमंतरा णं जहा
असुरकुमारा । एवं जोइसिय-वेमाणियाण वि । णवरं ते वेदणाए दुविहा पण्णत्ता, तं जहामाइमिच्छद्दिट्ठिउववण्णगा य, अमाइसम्मद्दिट्ठिउववण्णगा य । तत्थ णं जे ते माइमिच्छट्टिोववण्णगा ते णं अपवेदणतरागा। तत्थ णं जे ते अमाइसम्मदिट्ठोववण्णगा ते णं महावेदणतरागा ।
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