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लेश्या-कोश भवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मबेईदिया णं भंते० ! एवं भव सिद्धियसया वि चत्तारि तणेव पुब्वगमएणं नेयव्वा । नवरं सव्वे पाणा० ? नो इण? सम? । सेसं तहेव ओहियसयाणि चत्तारि ।
जहा भवसिद्धियसयाणि चत्तारि एवं अभवसिद्धियसयाणि चत्तारि भाणियव्वाणि । नवरं सम्मत्त-नाणाणि नत्थि, सेसं तं चेव । एवं एयाणि बारस बेइदियमहाजुम्मसयाणि भवंति ।
-भग० श ३६ । श २ से १२ । पृ० ६३०-३१ कृष्णलेशी कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में कृतयुग्म-कृतयुग्म औधिक द्वीन्द्रिय शतक की तरह ग्यारह उद्देशक सहित महायुग्म शतक कहना चाहिए लेकिन लेश्या, कायस्थिति तथा आयु स्थिति एकेन्द्रिय कृष्णलेशी शतक की तरह कहने चाहिए। इस प्रकार सोलह महायुग्म शतक कहने चाहिए।
इसी प्रकार नीललेशी तथा कापोतलेशी शतक भी कहने चाहिए ।
भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय के सम्बन्ध में भी पूर्व गमक की तरह अर्थात् भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म एकेन्द्रिय शतक की तरह चार शतक कहने चाहिए लेकिन सर्वप्राणी यावत् सर्व सत्त्व पूर्व में उत्पन्न हुए हैं-इस प्रश्न के उत्तर में यह सम्भव नहीं' ऐसा कहना चाहिए।
भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म द्वीन्द्रिय के जैसे चार शतक कहे वैसे ही अभवसिद्धिक के भी चार शतक कहने चाहिए। लेकिन सम्यक्त्व और ज्ञान नहीं होते हैं। '८७.३ सलेशी महायुग्म त्रीन्द्रिय जीव
कडजुम्मकडजुम्मतेइ दिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं तेइ दिएसु वि बारस सया कायव्वा बेइदियसयसरिसा। नवरं
ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाहं । ठिई जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेसं एगूणवन्नं राइदियाइ, सेसं तहेव ।
-भग० श ३७ । पृ० ६३१ महायुग्म द्वीन्द्रिय शतक की तरह औधिक, कृष्णलेशी, नीललेशी तथा कापोतलेशी त्रीन्द्रिय जीवों के भी औधिक, भवसिद्धिक तथा अभवसिद्धिक पदों से
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