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लेश्या - कोश
३७१
द्वापरयुग्म, कृष्णलेशी राशियुग्म कल्योज— इन तीनों नारकी युग्मों के सम्बन्ध में कृष्णलेश राशियुग्म कृतयुग्म के उद्दे शक में जैसा कहा गका है, वैसा ही अलगअलग उद्द ेशक कहना चाहिए । लेकिन परिमाण तथा संवेध को भिन्नता जाननी चाहिए ।
नीलेशी राशियुग्म जीवों के भी कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापरयुग्म कल्योज-चार उद्देशक कृष्णलेशी राशियुग्म उद्देशक की तरह कहने चाहिए लेकिन नारकी का उपपात बालुकाप्रभा की तरह कहना चाहिए ।
कापोतलेशी राशियुग्म जीवों के भी कृष्णलेशी राशियुग्म की तरह कृतयुग्म, त्र्योज, द्वापरयुग्म, कल्योज चार उद्देशक कहने चाहिए । लेकिन नारकी का उपपात रत्नप्रभा की तरह कहना चाहिए |
तेजोलेशी राशियुग्म जीवों के सम्बन्ध में कृष्मलेशी राशियुग्म की तरह चार उद्देशक कहने चाहिए । लेकिन जिनके तेजोलेश्या होती है उनके ही सम्बन्ध में ऐसा कहना चाहिए ।
पद्मलेशी राशियुग्म जीवों के सम्बन्ध में कृष्णलेशी राशियुग्म की तरह ही चार उद्देशक कहने चाहिए । तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य तथा वैमानिक देवों के ही पद्मलेश्या होती है, अवशेष के नहीं होती है ।
जैसे पद्मलेश्या के विषय में चार उद्देशक कहे गया है, वैसे ही शुक्ललेश्या के भी चार उद्देशक कहने चाहिए । लेकिन मनुष्य के सम्बन्ध में जैसा औधिक उद्देशक में कहा गया है, वैसा ही समझना चाहिए तथा अवशेष वैसा ही जानना चाहिए |
-४ कण्हलेस्सभवसिद्धीयरासी जुम्मकडजुम्मनेरइया णं भंते! कओ उववज्जंति० ? जहा कण्हलेस्साए चत्तारि उद्देसगा भवंति तहा इमे वि भवसिद्धीयकण्हलेस्सेहि वि चत्तारि उह सगा कार्यव्वा ।
एवं नीललेस्सभवसिद्धीएहि वि चत्तारि उद्दे सगा कायव्वा । एवं काऊलेम्सेहि विचत्तारि उह सगा । तेऊलेस्सेहि वि चत्तारि उह सगा ओहियसरिसा । पम्हलेस्सेहि विचत्तारि उद्दे सगा । सुक्कलेस्सेहि वि चत्तारि उह सगा ओहियसरिसा ।
— भग० श ४१ । उ ३३ से ५६ । पृ० ६३७
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