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लेश्या-कोश
कण्हलेस्सअभवसिद्भियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिदिया णं भंते ! कओ उववज्जंति० ? जहा एएसिं चेव ओहियसयं तहा कण्हलेम्सस यं वि । नवरं तेणं भंते! जीवा कण्हलेम्सा ? हंता कण्हलेस्सा । ठिई, संचिणा य जहा कण्हलेस्ससए सेसं तं चैव ।
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एवं छहि वि लेस्साहिं छ सया कायव्वा जहा कण्हलेस्ससयं । नवरं संचिणा ठिई य जहेव ओहियसए तहेव भाणियव्वा । नवरं सुकलेस्साए उक्कोसेणं इकतीसं सागरोवमाई अन्तोमुहुत्तमव्भहियाई । ठिई एवं चेव । नवरं अन्तोमुहुत्तं नत्थि जहन्नगं ', तहेव सव्वत्थ सम्मत्त नाणाणि नत्थि । विरई विरयाविरई अणुत्तरविमाणोववत्तिएयाणि नत्थि । सव्वपाणा० ( जाव ) नो इट्ठ े समझे । x x x एवं एयाणि सत्त अभवसिद्धियमहाजुम्मसयाणि भवति ।
— भग० श ४० । श १६ से २१ । पृ० ६३४
कृष्णलेशी अभवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के सम्बन्ध में जैसा इनके औधिक ( अभवसिद्धिक ) शतकों में कहा वैसा कृष्णलेश्या अभवसिद्धिक शतक में भी कहना चाहिए लेकिन ये जीव कृष्णलेश्या वाले होते हैं । इनकी कार्यस्थिति तथा स्थिति के सम्बन्ध में जैसा अधिक कृष्णलेश्या शतक में कहा वैसा ही कहना चाहिए ।
कृष्णलेश्या शतक की तरह छः लेश्याओं के छः शतक कहने चाहिए लेकिन काय स्थिति और स्थिति औधिक शतक की तरह कहनी चाहिए । लेकिन शुक्ललेश्या में उत्कृष्ट कार्यस्थिति साधिक अन्तर्मुहूर्त इकतीस सागरोपम की कहनी चाहिए | इसी प्रकार स्थिति के सम्बन्ध में जानना चाहिए । लेकिन जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक न कहना चाहिए । सर्व स्थानों में सम्यक्त्व तथा ज्ञान नहीं है । विरति विरताविरति भी नहीं है तथा अनुत्तर विमान से आकर उत्पत्ति भी नहीं है । सर्वप्राणी यावत् सर्वसत्त्व पूर्व में अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं - इस प्रश्न के उत्तर में 'यह सम्भव नहीं है' ऐसा कहना चाहिए । इस प्रकार अभवसिद्धिक के सात महायुग्म शतक होते हैं ।
महायुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के इक्कीस शतक होते हैं । शतक इक्कासी होते हैं ।
१. यहाँ ' जहन्नगं ' शब्द का भाव समझ में नहीं आया ।
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तथा सर्व महायुग्म
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