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लेश्या-कोश
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उनमें जो वीतराअसं यत हैं वे क्रियारहित है, तथा इनमें जो सरायसंयत हैं वे भी दो प्रकार के हैं, यथा--प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं उन्हें एक मायाप्रत्यया क्रिया लगती है। उनमें जो प्रमत्तसंयत हैं उन्हें दो क्रियाए लगती हैं, यथा--आरम्भिकी और मायाप्रत्यया। उनमें जो संयतासंयत है उन्हें आदि की तीन क्रियाए लगती है ( आरम्भिकी, पारिग्नहिकी मायाप्रत्यया)। असंयतों को चार क्रियाए लगती है, यथा-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यान क्रिया। मिथ्यादृष्टियों को पांचों क्रियाएं लगती है तथा सम्यगमिथ्यादृष्टियों को भी पांचों क्रियाए लगती है आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानी और मिथ्याप्रत्यया क्रिया ।
१४–वानव्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक के आहारादि के सम्बन्ध में सब वर्णन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए । विशेषता यह है कि इनकी वेदना में भिन्नता है। ज्योतिषी और वैमानिकों में जो मायी मिथ्यादृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं वे अल्पवेदनावाले हैं और जो अमायी सम्यदृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं वे महावेदनावाले होते हैं । ऐसा कहना चाहिए ।
नोट-कृष्णादि छः लेश्या के छः दण्डक और सलेशी का एक दण्डक- इस प्रकार सात दण्डकों पर विचार किया गया है।
.८४ सलेशी जीव और आहारकत्व-अनाहारकत्व
सलेस्से णं भंते ! जीवे किं आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय आहारए, सिय अणाहारए, एवं जाव वेमाणिए।
सलेस्सा णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा? गोयमा ! जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, एवं कण्हलेस्सा वि नीललेस्सा वि काऊलेस्सा वि जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो। तेउलेस्साए पुढविआउवणस्सइकाइयाणं छन्भंगा, सेसाणं जीवाइओ तियभंगो जेसिं अस्थि तेउलेस्सा, पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए य जीवाइओ तियभंगो।
अलेस्सा जीवा मणुस्सा सिद्धा य एगत्तेण वि पुहुत्तेण वि नो आहारगा अणाहारगा।
-पण्ण० प २८ । उ २ । सू ११ । पृ० ५०६-५१०
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