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लेश्या-कोश
उत्तर-औधिक सामान्य, सलेश्य एवं शुक्ललेश्यावाले-इन तीनों का एक गम-पाठ कहना चाहिए । कृष्णलेश्या और नीललेश्या वालों का एक समान पाठ कहना चाहिए, किन्तु उनकी वेदना में इस प्रकार भेद हैं-मायी मिथ्या ट उपपन्नक और अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक कहने चाहिए। तथा कृष्णलेश्या और नीललेश्या ( के संदर्भ ) में मनुष्यों के सरागसंयत-वीतराग संयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ( भेद ) नहीं कहना चाहिए। क्योंकि कृष्ण और नील लेश्यावाले वीतराग संयत नहीं होते हैं, किन्तु प्रमत्त संयत ही होते हैं । कापोतलेश्या में भी यही पाठ कहना चाहिए । भेद यह है कि कापोतलेश्यावाले नारकी को औधिक दंडक के समान कहना चाहिए। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालों को औधिक के दंडक समान कहना चाहिए । विशेषता यह है कि इन मनुष्यों में सराग और वीतराग का भेद नहीं कहना चाहिए; क्योंकि तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले मनुष्य सराग ही होते हैं।
विवेचन-नारकी आदि चौबीस दंडकों के सम्बन्ध में समाहारादि दशद्वार सम्बन्धी प्रश्नोत्तर नारकी से वैमानिक तक चौबीस दंडकों के सम्बन्ध में निम्तोक्त दशद्वार सम्बन्धी प्रश्नोत्तर अंकित किये गये हैं
१-सम-आहार २-सम-शरीर ३-सम-उच्छास-निःश्वास ४-सम-कर्म ५-सम-वर्ण
६-सम-लेश्या ७-सम-वेदना ८-सम-क्रिया
-समायुष्क १०-समोपपन्नक
औधिक गमक का विवेचन नेरइयादीणं समाहार समशरीरादि पदं ।
नेरइया णं भंते ! सव्वे समाहारा ? सव्वे समसरीरा ? सव्वे समुस्सासनीसासा ? हिस्सासा(ता)।
गोयमा ! नो इण सम ।
से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ-नेरइया नो सब्वे समाहारा ? नो सव्वे समसरीरा ? नो सव्वे समुस्ससानीसासा ?
गोयमा! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-महासरीरा य, अप्पसरीरा य। तत्थ णं जे ते महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले
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