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लेश्या-कोश समायं निविसु । तत्थ णं जे ते समाउया विसमोववन्नगा ते णं पावं कम्मं समायं पट्टविंसु विसमायं निविसु । से तेणढणं तं चेव । सलेस्सा णं भंते ! अनंतरोववनगा नेरइया पावं० ? एवं चेव, एवं जाव अनागारोवउत्ता । एवं असुरकुमाराणं । एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियव्वं । एवं नाणावरणिज्जेण वि दंडओ, एवं निरवसेसं जाव अंतराइएणं ।
एवं एएणं गमएणं जञ्चेव बंधिसए उद्देसगपरिवाडी सच्चेव इह वि भाणियव्वा जाव अचरिमो त्ति। अनंतरउसगाणं चउण्ह वि एक्का वत्तव्वया, सेसाणं सत्तण्हं एक्का ।
-भग० श २६ । उ २ से ३ । पृ० ६०४-५ सलेशी अनंतरोपपन्नक नारकी दो प्रकार के होते हैं ; यथा कितने ही समायु समोपपत्रक तथा कितने ही समायु विषमोपपन्नक होते हैं। उनमें जो समायु समोपपन्नक हैं वे पापकर्म का प्रारम्भ समकाल में करते है तथा अन्त भी समकाल में करते हैं। तथा उन में जो समायु विषयोपपन्न क हैं वे पापकर्म का प्रारम्भ समकाल में करते हैं तथा अन्त विषमकाल में करते हैं। इसी प्रकार असुरकुमार यावत वैमानिक देवों तक कहना चाहिये, जिसके जितनी लेश्या हो उतने पद कहने चाहिये । इसी प्रकार आठ कर्मप्रकृति के आठ दण्डक कहने चाहिये । ___इस प्रकार के पाठों द्वारा जैसी बन्धन शतक में उद्देशकों की परिपाटी कही, वैसी ही उद्देशकों की परिपाटी यहाँ भी यावत् अचरम उद्देशक तक कहनी चाहिये । अनन्तर सम्बन्धी चार उद्देशकों की एक जैसी वक्तव्यता कहनी चाहिये । बाकी के सात उद्देशकों की एक जैसी वक्तव्यता कहनी चाहिये ।
'७९ सलेशी जीव और कर्मप्रकृति का सत्ता-बन्धन
वेदन७६१ सलेशी एकेन्द्रिय और कर्मप्रकृति का सत्ता-बंधन-वेदन
कइविहा णं भंते ! कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा कण्हलेस्सा एगिंदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविक्काइया जाव बणस्सइकाइया।
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