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लेश्या-कोश . लेश्या मार्गणायां कृष्णनीलयोस्तीर्थकृदाहारकद्वयं च नेत्युदययोग्यप्रकृतयः एकोनविंशतिशतं । गुणस्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि चत्वारि । कुतः ? 'अयदोत्ति छल्लेसाओ' इत्युक्तत्वात् ।
–गोक० गा ३२५ । टीका लेश्या मार्गणा में कृष्ण लेश्या और नील लेश्या में तीर्थङ्कर और आहारक द्विक का उदय न होने से उदय योग्य प्रकृतियाँ ११६ है ।
व्याख्या-अभेदविवक्षया उदयप्रकृतिषु द्वाविंशत्युत्तरशते उदयविधिः।
-गोक० गा २६३ टीका विवक्षा से उदय प्रकृतियां १२२ है। १२० प्रकृति बंधयोग्य में है तथा सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय का उदय होता है । कुल १२०+२=१२२ प्रकृति उदय योग्य है। कपोतलेश्यायामुदययोग्यं कृष्णनीलवदेकानविंशतिशतं ।
-गो० ग ३२५ टीका कापोत लेश्या में उदय योग्य कृष्ण-नील की तरह ११६ है ।
तेउतिए सगुणोघं णादाविगिविगल थावरचउक्कं । णिरयदुतदाउतिरियाणुगं णराणू ण मिच्छदुगे।
-गोक० गा ३२७ टीका-तेजः पद्मशुक्ललेश्यासु स्वगुणौघ । तत्रातपएकेन्द्रियं विकलत्रयं स्थावरं सूक्ष्ममपर्याप्तं साधारणं नरकट्टिकं, तदायुस्तिर्यगानुपूर्व्य च नेति नवोत्तर शतमुदययोग्यं भवति । तत्रापि तेजः पद्मयोस्तीर्थकरत्वं नेत्यष्टोत्तरशतं १०८ । गुणास्थानानि सप्ताद्यनि ।
तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या में अपने गुणस्थानवत् जानना। उनमें आतप, एकेन्द्रिय, विकलपत्रय, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरकगति, नरकानपूर्वी, नरकायु और तिर्यश्चानुपूर्वी का उदय न होने से उदय योग्य १०६ है (१२२-१३ १०६) उनमें भी तेजो लेश्या और पद्मलेश्या में तीर्थङ्कर का उदय न होने से १०८ उदय है । गुणस्थान आदि के सात होते है ।
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