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लेश्या-कोश
३२१ संतालीस कर्म प्रकृति सत्ता में है। सास्वादन आदि में रचना गुणस्थान की तरह कहना चाहिए ।
सव्वं तिगेगं सव्वं चेगं छसु दोणि चउसु छदस य दुगे । छस्सगदालं दोसु तिसही परिहीणं पयडिसत्तं जाणे ।।
-गोक० गा ३६० टीका-मिथ्यादृष्टौ सत्वं सर्वमष्टचत्वारिंशच्छतं । सासादने तदेव तीर्थाहारकद्विकहीनं । मिश्रे तीर्थहीनं । असंयते सर्वे । देशसंयते नरकायुहीनं । प्रमत्तादिषु षट्षु नरकतिर्यगायुहीनं । पुनरपूर्वकरणादिषु चतुषु नरकतिर्यगायुरनंतानुबंधीचतुष्कहीनं । क्षपकापूर्वकरणादिद्वये नरकतिर्यग्देवायुसप्तप्रकृतिहीनं । सूक्ष्मसंपराये सोलट्ठिक्किगिछक्कं चटुसेक्कमिति षट्चत्वारिंशताहीनं । क्षीणकषाये लोभसहितयाहीनं। सयोगायोगयोः' घातिसप्तचत्वारिंशता नामकर्मत्रयोदशभिरायुस्त्रयेण च हीनं। चशब्दादयोगिचरमसमये पंचत्रिंशच्छतहीनं जानीहि ।
मिथ्यादृष्टि में सन्व सब एक सौ अड़तालीस है। सासादन में तीर्थङ्कर और आहारकद्वय से बिना एक सौ पैंतालीस की सत्ता हैं। मिश्र में तीर्थङ्कर बिना एक सौ सैंतालीस की सत्ता हैं। असंयत में सब एक सौ अड़तालीस का सत्ता है। देशसंयत में नरकायु के बिना एक सौ संतालीस की सत्ता हैं । प्रमत आदि छह गुणस्थानों में उपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा नरकायु तिर्यञ्चायु के बिना एक सौ छियालीस की सत्ता हैं। पुनः अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में नरकाय, तिर्यञ्चायु और अनन्तानुबन्धी चतुष्क का विसंयोजन करने की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्क के बिना एक सौ बयालीस की सत्ता हैं। क्षपक अपूर्वकरण और अनिवत्तिकरण में नरकाय, तिर्यञ्चाय, देवाय तथा मोहनीय की सात प्रकृतियों के बिना एक सौ अड़तीस की सत्ता हैं। सूक्ष्म सम्पराय में अनिवृत्तिकरण में व्यच्छिन्न हुई सोलह, आठ, एक, एक, छह, एक, एक, एक, एक के बिना एक सौ दो की सत्ता हैं। क्षीणकषाय में लोभ सहित सैंतालीस बिना एक सौ एक की सत्ता है। संयोगी-अयोगी में घातिकर्मों की सैतालीस, नाम कर्म की तेरह और तीन आय के बिना पिचासी की सत्ता है। 'च' शब्द से अयोगी के अन्तिम समय में एक सौ पैतीस बिना तेरह की सत्ता हैं। १. न योगयोः सप्तचब्बारिंशद्घाति त्रयोदशनामश्यायुःहीनं ।
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