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लेश्या - कोश
मोहणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स कइविहे बंधे पन्नत्ते ? एवं चेव, निरंतरं जाव वैमाणियाणं, x x x एवं एएणं कमेणं x x x कण्हलेस्साए ? जाव सुक्कलेस्साए xxx एएसिं सव्वेसि पयाणं तिविहे बंधे पन्नते । सव्वे एए चउव्वीसं दंडगा भाणियव्वा, नवरं जाणियव्वं जस्स जइ अत्थि |
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- भग० श २० । उ ७ । सू १, ८ पृ० ८०३
कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या का बंध तीन प्रकार का होता है जैसे—जीवप्रयोगवंध, अनन्तरबंध व परंपरबन्ध | नारकी की कापोतलेश्या का बंध भी तीन प्रकार का होता है । यथा— जीवप्रयोगबंध, अनंतरबंध व परंपरबंध | इसी प्रकार यावत् वैमानिक दण्डक तक तीन प्रकार का बंध कहना चाहिये तथा जिसके जितनी लेश्या हो उतने पद कहने चाहिये ।
जीवप्रयोगबंध - जीव के प्रयोग से अर्थात् मनःप्रभृति के व्यापार से जो बंध हो वह जीवप्रयोगबंध है । अनंतरबंध - जीव तथा पुद्गलों के पारस्परिक बंध का जो प्रथम समय है वह अनंतरबंध है ; तथा बंध होने के बाद जो दूसरे, तीसरे आदि समय का प्रवर्तन है वह परम्परबंध है ।
* ७५ सलेशो जीव और कर्म बंधन -
*७५१ सलेशी औधिक जीव-दण्डक और कर्म-बंधन*७५·१·१ सलेशी औधिक जीव-दण्डक और पाप कर्म - बंधन -
सलेस्से णं भंते! जीवे पावं कम्मं किं बंधी बंधइ बंधिस्सइ (१), बंधी बंधइ ण बंधिस्सइ (२), [ बंधी ण बंधइ बंधिस्सइ (३), बंधी ण बंधइण बंधिस्सइ ( ४ ) ] पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ (१), अत्थेगइए० एवं चउभंगो । कण्हलेस्से णं भंते! जीवे पावं कम्मं किं बंधी० पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंधइ बंधिस्सइ ; अत्थेiइए बंधी बंध ण बंधिस्सइ ; एवं जाव - पम्हलेस्से सव्वत्थ पढमबिइयाभंगा | सुक्कलेस्से जहा सलेस्से तहेव चउभंगो । अलेस्से णं भंते ! जीवे पावं कम्मं किं बंधी० पुच्छा ? गोयमा ! बंधी ण बंधइ ण बंधिस्स ।
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- भग० श २६ | उ १ । सू २ से ४
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पृ० ८६८
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