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लेश्या-कोश कृष्णलेशी जीव के दो, तीन अथवा चार ज्ञान होते हैं। दो ज्ञान होने से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होता है। तीन ज्ञान होने से मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान होता है अथवा मति, श्रुत तथा मनःपर्यव ज्ञान होता है। चार होने से मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यव ज्ञान होता है। इसी प्रकार यावत् पद्मलेशी जीव तक कहना चाहिए । शुक्ललेशी जीव के एक, दो, तीन अथवा चार ज्ञान होते हैं । यदि दो, तीन अथवा चार ज्ञान हों तो कृष्णलेशी जीव की तरह होता है। एक ज्ञान हो तो केवल ज्ञान होता है।
ननु मनःपर्यवज्ञानमतिविशुद्धस्योपजायते, कृष्णलेश्या च संक्लिष्टाध्यवसायरूपा ततः कथं कृष्णलेम्याकस्य मनःपर्यवज्ञानसम्भवः ? उच्यते, इह लेश्यानां प्रत्येकासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचित मंदानुभावान्यध्यवसायस्थानानि प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यन्ते, अतएव कृष्णनीलकापोतलेश्या अन्यत्र प्रमत्तसंयतान्ता गीयन्ते, मनःपर्यवज्ञानं च प्रथमतोऽप्रमत्तसंयतस्योत्पद्यते ततः प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यते इति सम्भवति कृष्णलेश्याकस्यापि मनःपर्यवज्ञानं ।
–पण्ण० प १७ । उ ३ । सू ३० । टीका मनःपर्यवज्ञान अति विशुद्धि को प्राप्त जीव को होता है तथा कृष्णलेश्या संक्लिष्ट अध्यवसाय रूप है, तब कृष्णलेश्या में मनपर्यवज्ञान कैसे सम्भव हो सकता है ? प्रत्येक लेश्या के असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय स्थान होते हैं, उनमें कितने ही मंद रसवाले अध्यवसाय स्थान प्रमत्त संयत को भी होते हैं । अतः कृष्ण, नील, कापोत लेश्याए प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती हैं—ऐसा अन्य ग्रन्थकारों ने कहा है। मनःपर्यवज्ञान प्रथम अप्रमत्तसंयत को होता है तथा तत्पश्चात् प्रमत्तसं यत को भी होता है। अतः कृष्णलेश्यावाले को भी मनःपर्यवज्ञान सम्भव है। .६६ २ लेश्या-विशुद्धि से विविध ज्ञान-समुत्पत्ति'६६ २-१ लेश्या-विशुद्धि से जाति-मरण ( मतिज्ञान )__(क) तए णं तव मेहा! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं अज्झवसाणेणं सोहणणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेण ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुव्वे जाइसरणे समुप्पन्जित्था ।
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