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लेश्या-कोश ४–केवली आदि के पास से धर्मप्रतिपादक वचन सुनकर सम्यग्दर्शनादि प्राप्त जीव को सम्यक्त्व अवस्था में अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ
तस्स (सोच्चा ) णं अट्ठमंअट्टमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स पगइभदयाए तहेव जाव (पगइउवसंतयाए, पगइपयणुकोह-माण-मायालोभयाए, मिउमदवसंपयाए, अल्लीणयाए, विणीययाए, अण्णया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्झमाणी हिं-विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-अपोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ।
-भग० श ६ उ ३१ । सू ५५ अर्थात् केवली यावत् केवलिपाक्षिक के पास से धर्मप्रतिपादक वचन सुनकर सम्यग्दर्शनादि प्राप्त जीव को निरन्तर तेले-तेले की तपस्या द्वारा आत्मा को भावित करते हुए प्रकृति की भद्रता आदि गुणों से-किसी दिन शुभ अध्यवसाय शुभ परिणाम, विशुद्धलेश्या से एवं तदावरणीय कर्म ( अवधिज्ञानावरणीयकर्म) के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ।
५–साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकादि से केवलीप्ररूपित धर्म को बिना सुनकर ही ( अश्रुत्वा ) कतिपय जीवों को ज्ञानावरणीयादि कर्मों के क्षयोपशम से विभंग अज्ञान उत्पन्न होता है। उस मिथ्यात्व अवस्था में उनके विशुद्ध लेश्या, शुभ अध्यवसाय; शुभपरिणाम आदि होते हैं।
तस्स णं ( असोच्चा णं केवलिस्स ) भंते ! छट्ठछ?णं x x x अन्नया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं-विसुज्झामाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहा-पोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुष्पज्जइ।
-भग० श ६ । उ ३१ । सू ३३
____ अर्थात् किसी के पास से भी धर्म को न सुनकर अश्रुत्वा को निरन्तर-छ?-छ? का तप करते हुए x x x किसी दिन शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम; विशुद्ध
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