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लेश्या-कोश
२४७ स्थिति वाले को अप्रदेशी तथा द्वयादि समय की स्थिति वाले को सप्रदेशी कहा है। इस सम्बन्ध में उन्होंने एक गाथा भी उद्धृत की है।
जो जस्स पढससमए वट्टइ भावस्ससो उ अपएसो।
अण्णम्मि वट्टमाणो कालाएसेण सपएसो॥ - सलेशी जीव ( एकवचन) काल की अपेक्षा से नियमतः सप्रदेशी होता है। सलेशी नारकी काल की अपेक्षा से कदाचित् सप्रदेशी होता है, कदाचित् अप्रदेशी होता है। इसी प्रकार यावत् सलेशी वैमानिक देव तक समझना ।
सलेशी जीव ( एकवचन ) काल की अपेक्षा से सप्रदेशी होता है क्योंकि सलेशी जीव अनादि काल से सलेशी जीव है। सलेशी नारकी उत्पन्न होने के प्रथम समय की अपेक्षा से अप्रदेशी कहलाता है तथा तत्पश्चात्-काल की अपेक्षा से सप्रदेशी कहलाता है।
सलेशी जीव ( बहुवचन ) काल की अपेक्षा से नियमतः सप्रदेशी होते हैं क्योंकि सर्व सलेशी जीव अनादि काल से सलेशी जीव हैं। दण्डक के जीवों का बहुवचन से विवेचन करने से काल की अपेक्षा से सप्रदेशी-अप्रदेशी के निम्नलिखित छः भंग होते हैं
(१) सर्व सप्रदेशी, अथवा (२) सर्व अप्रदेशी, अथवा (३) एक सप्रदेशी, एक अप्रदेशी, अथवा (४) एक सप्रदेशी, अनेक अप्रदेशी, अथवा (५) अनेक सप्रदेशी, एक अप्रदेशी, अथवा (६) अनेक सप्रदेशी, अनेक अप्रदेशी।
सलेशी नारकियों यावत् स्तनितकुमारों में तीन भंग होते हैं, यथा-प्रथम, अथवा पंचम, अथवा षष्ठम । सलेशी पृथ्वीकायिकों यावत् वनस्पतिकायिकों में छठा विकल्प होता है। सलेशी द्वीन्द्रियों यावत् वैमानिक देवों में प्रथम, अथवा पंचम, अथवा षष्ठ विकल्प होता है।
कृष्णलेशी, नीललेशी, कापोतलेशी जीव (एकवचन) कदाचित् सप्रदेशी होता है, कदाचित् अप्रदेशी होता है । कृष्णलेशी-नीललेशी-कापोतलेशी नारकी यावत् वानव्यंतर देव कदाचित् सप्रदेशी, कदाचित् अप्रदेशी होता है। कृष्णलेशी-नीललेशी-कापोतलेशी जीव (बहुवचन) अनेक सप्रदेशी, अनेक अप्रदेशी होते हैं । कृष्णलेशी-नीललेशी-कापोतलेशी नारकियों यावत् वानव्यंतर देवों (एकेन्द्रिय बाद) में प्रथम, अथवा पाँचवाँ, अथवा छठा विकल्प होता है। कृष्णलेशी-नीललेशीकापोतलेशी एकेन्द्रिय (बहुवचन) अनेक सप्रदेशी, अनेक अप्रदेशी होते हैं।
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