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लेश्या-कोश हैं । ( देखो पाठ '५८ ३५.१ ) इसमें पहला, चौथा तथा सातवाँ तीन ही गमक होते हैं।
-भग० श २४ । उ २४ । सू २३-२६ । पृ० ८५१ '५८ के सभी पाठ भगवती शतक २४ से लिए गए हैं। इस शतक में स्व/पर योनि से स्व/पर योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों का नो गमकों तथा उपपात के अतिरिक्त निम्नलिखित बीस विषयों को अपेक्षा से विवेचन हुआ है
(१) स्थिति, (२) संख्या, (३) संहनन, (४) शरीरावगाहना, (५) संस्थान, (६) लेश्या, (७) दृष्टि, (८) ज्ञान, (६) योग, (१०) उपयोग, (११) संज्ञा, (१२) कषाय, (१३) इन्द्रिय, (१४) समुद्घात, (१५) वेदन, (१६) वेद, (१७) कालस्थिति, (१८) अध्यवसाय, (१६) कालादेश तथा (२०) भवादेश । हमने लेश्या की अपेक्षा से पाठ ग्रहण किया है। गमकों का विवरण पृ० १०० पर देखें ।
'५९ जीव-समूहों में कितनी लेश्या .५६.१ विभिन्न जीव-समूहों में कितनी लेश्या
सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच पुढविक्काइया एगयओ साहारणसरीरं बंधति x x x ? नो इण8 समठ्ठ । x x x पत्तेयं सरीरं बंधति । x x x तेसिणं भंते ! जीवाणं कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा–कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काऊलेस्सा, तेऊलेस्सा।
सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच आउक्काइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति xxx एवं जो पुढविक्काइयाणं गमो सो चेव भाणियव्वो ।
सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच तेउकाइया० एवं चेव । नवरं उववाओ ठिई उव्वट्टणा य जहा पन्नवणाए, सेसं तं चेव । वाउकाइयाणं एवं चेव ।
टीका-लेश्यायामपि यतस्तेजसोऽप्रशस्तलेश्या एव पृथिवीकायिकास्त्वाद्यचतुर्लेश्याः, यच्चेदमिह न सूचितं तद्विचित्रत्वात्सूत्रगतेरिति ।
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