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लेश्या-कोश यदि बन्ध के कारणों को ही लेश्याभाव माना जाता है तो प्रमाद को भी लेश्याभाव मानना चाहिए। यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रमाद का कषायों में अन्तर्भाव हो जाता है।
असंयम को भी लेश्याभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि असंयम का लेश्याकर्म में अन्तर्भाव हो जाता है।
मिथ्यात्व को लेश्याभाव मानने में कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि यहाँ कषायों की प्रधानता होती है और कषाय हिंसादि लेश्याकर्मों का कारण है तथा अन्य बन्ध-कारणों में उसका अभाव है।
.१२ ब्रह्मदेव :
कषायोदयरञ्जित-योगप्रवृत्ति-विसदृशपरमात्म-द्रव्य-प्रतिपन्थिनी कृष्णनी लकापोततेजः पद्मशुक्लभेदेन षड्विधा लेश्यामार्गणा ।
-बृद्रसं० गा १३ । पृ० ३३ । टीका लेश्या कषायोदय से रंजित काय आदि योगों की प्रवृत्ति रूप, विसदृश तथा शुद्ध आत्मतत्व से प्रतिपंथी-विपरीत पथ में ले जानेवाली है और वह कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल भेद से छः प्रकार की होती है। १३ कुन्दकुन्दाचार्य :
खीणे पुव्वणिबद्ध गदिणामे आउसे च ते वि खलु । पापुण्णं ति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेम्सवसा ।।
-पंचका० गा ११६ पूर्व में बंधे हुए गतिनामकर्म और आयुष्यकर्म के क्षीण हो जाने पर जीव के जो अन्य गति और आयुष्य की प्राप्ति होती है वह लेश्यानुवर्ती होती है। .१४ अमृतचन्द्राचार्य
क्षीयते हि क्रमेणारब्धफलो गतिनामविशेषायुर्विशेषश्च जीवानाम् । एवमपि तेषां गत्यन्तरस्यायुरन्तरस्य च कषायानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिलेश्या बीजं, ततस्तदुचितमेव । गत्यन्तरमायुरन्तरञ्च ते प्राप्नुवन्ति । एवं क्षीणाक्षीणाभ्यामपि पुनः पुनर्नवीभूताभ्यां गति
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