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लेश्या-कोश ___ कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के असंख्यात स्थान होते हैं। असंख्यात अवसपिणी तथा उत्सर्पिणी में जितने समय होते हैं अथवा असंख्यात लोकाकाश के जितने प्रदेश होते हैं उतने लेश्याओं के स्थान होते हैं।
(ग) लेस्सहाणेसु संकिलिस्समाणेसु २ कण्हलेस्सं परिणमइ २ त्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएमु उववज्जति x x x लेस्सहाणेसु संकिलिस्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु जीललेस्सं परिणमइ २ ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववजन्ति ।
-भग० श १३ । उ १ । सू १६ तथा २० का उत्तर । पृ० ६७६
लेश्या स्थान से संक्लिष्ट होते-होते कृष्णलेश्या में परिणमन करके जीव कृष्णलेशी नारक में उत्पन्न होता है। लेश्या स्थान से संक्लिष्ट होते-होते या विशुद्ध होते-होते नीललेश्या में परिणमन करके नीललेशी नारक में उत्पन्न होता है।
द्रव्यलेश्या की अपेक्षा यदि विवेचन किया जाय तो द्रव्यलेश्या के असंख्यात स्थान हैं तथा वे स्थान पुद्गल की मनोज्ञता-अमनोज्ञता, दुर्गन्धता-सुगन्धता, विशुद्धता-अविशुद्धता तथा शीतरूक्षता-स्निग्धउष्णता की हीनाधिकता की अपेक्षा कहे गये हैं।
भावलेश्या की अपेक्षा यदि विवेचन किया जाय तो एक-एक लेश्या की विशुद्धिअविशुद्धि की हीनाधिकता से किये गये भेद रूप स्थान-कालोपमा की अपेक्षा असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी के जितने समय होते हैं अथवा क्षेत्रोपमा की अपेक्षा असंख्यात लोकाकाश के जितने प्रदेश होते हैं उतने भावलेश्या के स्थान होते हैं।
भावलेश्या के स्थानों के कारणभूत कृष्णादि लेश्या-द्रव्य हैं। द्रव्यलेश्या के स्थान के बिना भावलेश्या का स्थान बन नहीं सकता है। जितने द्रव्यलेश्या के स्थान होते हैं उतने ही भावलेश्या के स्थान होने चाहिये ।
प्रज्ञापना के टीकाकार श्री मलयगिरि ने प्रज्ञापना का विवेचन द्रव्यलेश्या की अपेक्षा माना है तथा उत्तराध्ययन का विवेचन भावलेश्या की अपेक्षा माना है।
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