________________
१२०
लेश्या-कोश (३) चरमलेश्या अन्तर्गत पुद्गल भी सूर्य की लेश्या का प्रतिघात करते हैं । टीकाकार कहते हैं कि मेरु पर्वत के अन्यत्र भी प्राप्त चरमलेश्या के विशेष स्पर्शी पुद्गलों से सूर्य की लेश्या का प्रतिघात होता है। '३१.५ चन्द्र-सूर्य की लेश्या का आवरण
x x x ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउन्वेमाणे वा परियारेमाणे वा चन्दस्स वा सूरस्स वा लेस्सं
आवरेमाणे चिट्ठइ [ आवरेत्ता वीइवयइ ], तया णं मणुस्सलोए मणुस्सा वयंति-एवं खलु राहुणा चन्दे वा सूरे वा गहिए xxx।
__ -चन्द० सू २० पृ० ७४६
-सूरि० सू २० । वही पाठ इस प्रकार राहू देव के आते, जाते, विकुर्वना करते, परिचारना करते सूर्यचन्द्र की लेश्या का आवरण होता है। इसी को मनुष्य लोक में चन्द्र-सूर्य ग्रहण कहते हैं।
'४ मावलेश्या ४१ मावलेश्या-जीवपरिणाम
जीवपरिणामे णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा! दसविहे पन्नत्ते। तं जहा–गइपरिणामे १, इंदियपरिणामे २, कसायपरिणामे ३, लेस्सापरिणामे ४, जोगपरिणामे ५, उवओगपरिणामे ६, णाणपरिणामे ७, दंसणपरिणामे ८, चरित्तपरिणामे ६, वेयपरिणामे १०।
-पण्ण० प० १३ । सू १ । पृ० ४०८ -ठाण० स्था १० । सू ७१३ । पृ० ३०४ ( केवल उत्तर ) जीव परिणाम के दस भेद हैं, यथा
१-गति परिणाम, २-इन्द्रिय परिणाम, ३-कषाय परिणाम, ४-लेश्या परिणाम, ५-योग परिणाम, ६-उपयोग परिणाम, ७-ज्ञान परिणाम, ८-दर्शन परिणाम, ६-चारित्र परिणाम तथा १०-वेद परिणाम ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org