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लेश्या-कोश
ये पाठ द्रव्य और भाव दोनों में लागू हो सकते हैं । स्थानांग तथा प्रज्ञापना में द्रव्य तथा भाव दोनों के गुणों का मिश्रित विवेचन है । प्रज्ञापना के टीकाकार मलयगिरि का कथन है कि लेश्या अध्यवसायों की हेतु है और संक्लिष्ट-असंकलिष्ट अध्यवसायों से जीव दुर्गति-सुगति को प्राप्त होता है। यह विवेचनीय विषय है।
२७ लेश्या के छ भेद और पंच ( पुद्गल ) वर्ण
(क) एयाओ णं भंते ! छल्लेस्साओ कइसु वन्नेसु साहिज्जति ? गोयमा ! पंचसु वन्नेसु साहिज्जति, तं जहा-कण्हलेस्सा कालएणं वन्नेणं साहिजइ, नीललेस्सा नीलवन्नेणं साहिजइ, काऊलेस्सा काललोहिएणं वन्नेणं साहिज्जइ, तेउलेस्सा लोहिएणं वन्नेणं साहिज्जइ, पम्हलेस्सा हालिद्दएणं वन्नेणं साहिजइ, सुक्कलेस्सा सुकिल्लएणं वन्नेणं साहिजइ ।
-पण्ण० प १७ । उ ४ । सू १२३२ । पृ० २६५ कृष्णलेश्या काले वर्ण की है, नीललेश्या नीले वर्ण की है, कापोतलेश्या कालालोहित वर्ण की है, तेजोलेश्या लोहित वर्ण की है, पद्मलेश्या पीले वर्ण की है, शुक्ललेश्या श्वेत वर्ण की है। . (ख) सरीरेसु सव्ववण्णपोग्गलेसु संतेसु कधमेदस्स सरीरम्स एसा चेव लेस्सा होदि त्ति णियमो ? ण एस दोसो, उक्कट्ठवण्णं पडुच्च तण्णिदेसादो। तं जहा-कालयवण्णुकट्ठजं सरीरं तं किण्णलेस्सियं । णीलवण्णुकट्ठ जं तं णीललेस्सियं । लोहियवण्णुकट्ठ जं सरीरं तं तेउलेस्सियं । हालिद्दवण्णुकट्ठ पम्मलेस्सियं । सुकिल्लवण्णुक्क सुक्कलेस्सियं । एदेहि वण्णेहि वज्जिय वण्णंतरावण्णं काउलेस्सियं ।
-षट० पु १६ । पृ० ४८६-८७ यद्यपि जीव-शरीर में अनेक वर्गों के पुद्गल विद्यमान रहते हैं फिर इस शरीर की लेश्या एक ही वर्ण की होती है-ऐसा नियम क्यों किया गया है ? एक वर्ण की उत्कृष्टता की अपेक्षा ऐसा नियम किया गया है। जिस शरीर में काले वर्ण की उत्कृष्टता होती है वह कृष्णलेशी, जिसमें नील वर्ण की उत्कृष्टता होती
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