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नामायुः कर्मभ्यामनात्मस्वभावभूताभ्यामपि संसरत्यात्मानमचेतयमाना जीवा इति ।
१५ अज्ञाताचार्य आह
(क) श्लेष इव
लेश्या-कोश
स्फटिकस्येव
जीवों के आरब्धफल से क्रमानुक्रम से गतिनामकर्म और आयुष्यकर्म विशेष क्षीण होते हैं । नये कर्म बँधते हैं और पुराने क्षीण होते हैं । उनके इस क्रमवान् गत्यन्तर और आयुष्यान्तर का बीज कषायानुरंजित योगप्रवृत्ति रूप लेश्या होयह उचित ही है । जीव लेश्यावश होकर ही तदनुसार गत्यन्तर और आयुव्यान्तर प्राप्त करते हैं । इस प्रकार क्षीण और अक्षीण एवं पुनः पुनः नवीनता को प्राप्त हुए गतिनामकर्म और आयुष्यकर्म जीव का चिरकाल तक अनुगमन करते हैं । इस अनात्मस्वभावी अनुगमन से संसार में परिभ्रमण करता हुआ आत्माजीव इस तथ्य - अनात्मस्वभावी अनुगमन को नहीं समझता है ।
वर्णबन्धस्य
चिरमनुगम्यमानाः
- पंचका०
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० गा ११६ । टीका
कर्मबन्धस्थितिविधात्र्यः ।
(ख) कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥
- अभयदेव सूरि द्वारा उद्धृत ।
तत्रायं, - अभयदेव सूरि आदि अनेक विद्वानों द्वारा उद्धृत
(ग) लिश्यते - श्लिष्यते कर्मणा सहाSSत्माऽनयेति लेश्या । — अनेक विद्वानों द्वारा उद्धृत ।
०७ लेश्या के भेद
'०७१ मूलतः - सामान्यतः भेद
(१) कण्हलेस्साणं भंते! कइ वण्णा ( जाव कइ फासा ) पन्नत्ता ? गोयमा ! दव्वलेस्सं पडुच्च पंच वण्णा जाव अट्ठफासा पनन्ता, भावलेस्सं पडुच अवण्णा ( जाव अफासा ) पन्नत्ता, एवं जाव सुक्कलेस्सा |
- भग० श १२ । उ ५ । सु ११७ पृ० ५६६
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