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लेश्या-कोश
जो मंदतमोसा सुक्कलेस्सा । एदाओ छप्पि लेस्साओ अनंतभागवड्ढि असंखेज्जभागवड्ढि संखेज्जभागवड्ढि संखेज्जगुणवड्ढि असंखेजगुणasढ अनंतगुणवड्ढिकमेण पादेक्कं ब्रह्माणपदिदाओ ।
- षट्० पु १६ । पृ० ४८६,४८८-६
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यहाँ पर नैगम नय के अनुसार नोआगम द्रव्यलेश्या और भावलेश्या का प्रकृत विवेचन किया जा रहा है
द्रव्यलेश्या की अपेक्षा - जीवों के द्वारा अप्रतिगृहीत पुद्गलस्कन्धों की कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ललेश्या – ये छः संज्ञाएँ होती हैं । अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि के क्रम से असंख्यात लोकप्रमाण वर्णवाले पुद्गल ( स्कन्ध) देखे जाते हैं, फिर लेश्याएँ छः ही होती हैं—ऐसा नियम क्यों किया गया है ? यद्यपि पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से लेश्याएँ असंख्यात लोकप्रमाण वर्णवाली होती हैं तथापि द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से लेश्याओं के वर्णों की बहुलता होनेपर भी उनके छः ही भेद किये जाते हैं ।
( नैगम नय के अनुसार ) भावलेश्या मिथ्यात्व असंयम, कषाय तथा योगजनित जीवपरिणाम विशेष है । यहाँ जीब के तीव्र परिणाम का नाम कापोतलेश्या, तीव्रतर परिणाम का नाम नीललेश्या तथा तीव्रतम परिणाम का नाम कृष्णलेश्या है ; जीव के मन्द परिणाम का नाम तेजोलेश्या, मन्दतर परिणाम का नाम पद्मलेश्या तथा मन्दतम परिणाम का नाम शुक्ललेश्या है । इन छहों लेश्याओं में से प्रत्येक का अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि रूप पाद क्रम से छः स्थानों से पतन होता है ।
* १० / ३० द्रव्यलेश्या ( प्रायोगिक)
११ द्रव्यलेश्या के वर्ण
कण्हलेस्साणं भंते कइ वण्णा x x x पन्नत्ता ? गोयमा ! दव्वलेस्सं पडुच्च पंच वण्णा x x x एवं जाव सुक्कलेस्सा |
— भाग० श १२ । उ ५ । सू ११७ पृ० ५६६
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