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लेश्या-कोश
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•०६.४ पूज्यपादाचार्य : __ भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते। सा षड्विधा-कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या चेति ।
ननु च उपशान्तकषाये क्षीणकषाये सयोगकेवलिनि च शुक्ललेश्याऽस्तीत्यागमः । तत्र कषायानुरञ्जनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते ? नैष दोषः ; पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया याऽसौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरञ्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते । तदभावादयोगकेवल्यलेश्य इति निश्चीयते ।
-सर्व० अ २ । सू ६
कषायोदय से रंजित योगप्रवृत्ति भावलेश्या है, अतः भावलेश्या औदयिक है। भावलेश्या छः प्रकार की होती है.-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या ।
उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय तथा सयोगिकेवली गुणस्थान में शुक्ललेश्या रहती है-ऐसा आगमों में कथन है, किन्तु उक्त गुणस्थानों में कषायानुरंजन का अभाव होने से औदयिकत्व प्राप्त नहीं होता है। यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि पूर्वभाव प्रज्ञापना नय की अपेक्षा योगप्रवृत्ति को कषाय से अनुरंजित मानकर इन गणस्थानों में शुक्ललेश्या को उपचार से औदधिक भाव कहा जाता है। योगप्रवृत्ति के अभाव में अयोगिकेवली को निश्चय से अलेश्य माना जाता है।
०६५ अकलंक देव :
(क) कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिलेश्या। द्विविधा लेश्याद्रव्यलेश्या भावलेश्या चेति । तत्र द्रव्यलेश्या पुद्गलविपाकिकर्मोदयापादितेति x x x । भावलेश्या x x x तस्यात्मपरिणामस्याऽशुद्धिप्रकर्षाप्रकर्षापेक्षया कृष्णादिशब्दोपचारः क्रियते ।
-राज० अ २ । सू ६ । पृ० १०६ (ख) कषायश्लेषप्रकर्षाप्रकर्षयुक्ता योगप्रवृत्तिर्लेश्या।
-राज० अ६ । सू ७ । पृ० ६०४
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