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लेश्या-कोश
जो लिश्य करे - चिपकावे वह लेश्या है । लेश्या मनोयोग का आधारजनित परिणाम है, अतः यह आत्मा के साथ अन्तरंग रूप से श्लिष्ट होती है अर्थात् एकीभाव होती है ।
लेश्या दो प्रकार की होती है— द्रव्यलेश्या और भावलेश्या ।
द्रव्यश्या कृष्णादि वर्ण मात्र है ।
भावलेश्या कृष्णादि वर्णद्रव्यों के आधारजनित आत्मपरिणाम है और वे परिणाम कर्मबन्ध की स्थिति के विधाता हैं । यह भावलेश्या श्लेष - गोंद की तरह चिपकाने का काम करती है, जिस प्रकार चित्रादि में वर्ण द्रव्य को चिपकाया जाता है । वहाँ अविशुद्ध उत्पन्न आत्मपरिणाम कृष्णवर्ण होते हैं और उससे सम्बन्धित द्रव्यों के आधार से अविशुद्ध परिणाम उत्पन्न होते हैं और ऐसे अविशुद्ध परिणाम को कृश्णलेश्या कहा जाता है ।
०६८ विनयविजयगणी :
इन्होंने 'लेश्या' का विवेचन प्रज्ञापना लेश्यापद की वृत्ति का अनुसरण करके किया है, निज का कोई विशेष विवेचन नहीं किया है । शेष में वृत्ति की भोलावण भी दी है ।
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०६९ हेमचन्द्र सूरि द्वारा उद्धृत :
अपरस्त्वाह—ननु कर्मोदयजनितानां नारकत्वादीनां भवत्विहोपन्यासो लेश्यास्तु कस्यचित् कर्मण उदये भवन्तीत्यन्ये तन्न प्रसिद्ध तत्किमितीह तदुपन्यासः ? सत्यं किन्तु योगपरिणामो लेश्याः, योगस्तु त्रिविधोऽपि कर्मोदयजन्य एव ततो लेश्यानामपि तदुभयजन्यत्वं न विहन्यते, अन्ये तु मन्यन्ते कर्माष्टकोदयात् संसारस्थत्वासिद्धत्व वल्लेश्यावस्वमपि भावनीयमित्यलम् ।
- अणुओ० सू २३७ पर हेमचन्द्र सूरि वृत्ति
अन्य आचार्य का कथन है - जिस प्रकार नरकादि गतियों को कर्मोदयजनित माना जाता है उसी प्रकार लेश्या को भी कर्मोदयजनित मानना चाहिए । लेकिन लेश्या किसी कर्म विशेष के उदय से होती हैं—–— ऐसी प्रसिद्धि नहीं है । फिर ऐसा कथन - लेश्याएँ कर्मोदयजनित हैं— क्यों किया जाता है ? प्रश्न ठीक
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